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मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
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बदली-बदली-सी फिल्में नजर आती हैं!

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एक समय था, जब बॉलीवुड में फिल्में इस उद्देश्य से बनाई जाती थीं कि 8 से 80 साल के दर्शकों को दिखा दी जाएँ। मेरठ से लेकर मदुरै तक के दर्शकों के लिए एक ही फिल्म बनती थी, लेकिन अब फिल्में खास किस्म के दर्शकों को आकर्षित करने के लिए बनाई जाती हैं।

अगर सिंगल स्क्रीन थिएटर के दर्शकों को आकर्षित करना है तो उनके लिए 'बॉडीगार्ड' है और अगर मल्टीप्लेक्स में दर्शक बुलाने हैं तो फिर 'आईएम' है। हद तो यह है कि पुरुषों के लिए अलग तरह से फिल्में बनाई जा रही हैं और महिलाओं के लिए अलग तरह से। अब तो युवाओं और परिवार के लिए भी अलग-अलग फिल्में हैं।

आप सोच सकते हैं कि भला परिवार वाली फिल्में कौन-सी होती हैं और युवा वाली कौन-सी? सीधी-सी बात है, 'हम आपके हैं कौन' परिवार के दर्शकों के लिए है और 'एक मैं और एक तू' युवाओं के लिए। गौरतलब है कि जहाँ परिवार वाली फिल्मों में परंपराओं और मूल्यों पर जोर दिया जाता है, वहीं युवाओं के लिए जो फिल्में बन रही हैं, उनमें बोल्डनेस दिखाई जा रही है और सेक्स जैसे विषयों पर भी खुलकर चर्चा की जा रही है।

मसलन, फरवरी में रिलीज हुई 'एक मैं और एक तू' में दिखलाया गया है कि करीना कपूर और इमरान खान जल्दबाजी में लासवेगास में शादी कर लेते हैं और फिर जल्द ही तलाक भी हो जाता है। जब इस संदर्भ में एक अधिकारी मालूम करता है कि क्या उन्होंने शारीरिक संबंध स्थापित किए थे तो इसके जवाब में करीना कपूर 'हाँ' कहती हैं और इमरान खान 'न'। अपने जवाब के विरोधाभास का एहसास करते ही करीना जल्द से जोड़ देती हैं 'इसके साथ नहीं।'

जाहिर है कि अब फिल्मों में वह दौर नहीं रहा जब शारीरिक मिलन का संकेत दो फूलों को मिला कर दिया जाता था। आज की फिल्मों में सब कुछ खुलकर किया और कहा जा रहा है, जैसे 'देहली बैली' में जमकर गालियाँ इस्तेमाल की गईं।

फिल्मों में जो भाषा प्रयोग की जा रही है, उससे भी मालूम होता है कि वह किस आयु वर्ग के दर्शकों को आकर्षित करना चाहती है। मसलन, 'एक मैं और एक तू' या उससे पहले 'लव आजकल' और 'देहली बैली' 18-24 आयु वर्ग को आकर्षित करने के लिए थी। इसी सूची में 'प्यार का पंचनामा', मुझसे फ्रेंडशिप करोगे', 'ब्रेक के बाद', 'लव का दि एंड' आदि भी शामिल हैं।

इन फिल्मों को जो सफलता मिली है, उससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि 'युवा फिल्मों' ने दर्शकों को आकर्षित किया है। इन फिल्मों में युवा अपना जीवन व्यतीत कर रहे हैं, जीवन के मुद्दों का सामना कर रहे हैं और वह भी बिना किसी विलेन के। अधिकतर डायलॉग जीवन की सचाइयों से जुड़े हुए हैं। टकराव किसी विलेन से नहीं, बल्कि अपने आप से या अपने संबंधित व्यक्तियों से है। वार्ता की भाषा खिचड़ी है यानी कुछ अंग्रेजी और कुछ हिन्दी।

हालाँकि पिछले साल जितनी भी 'युवा फिल्में' बनीं, सब बॉक्स ऑफिस पर सफल नहीं हुईं, किंतु आर्थिक दृष्टि से ये अब भी निर्माताओं को लाभान्वित कर रही हैं। इसकी एक वजह यह भी है कि युवा फिल्में हमेशा जिंदा रहती हैं।

मसलन, 'मेरे अपने' (1970), 'बॉबी' (1973), 'लव स्टोरी' (1981), 'कयामत से कयामत तक' (1988) व 'जो जीता वही सिकंदर' (1992) आज भी युवाओं को पसंद आती हैं। दूसरा कारण यह भी है कि वर्तमान में देश की कुल जनसंख्या का 65 प्रश हिस्सा वह है, जो 35 वर्ष से कम का है। लगभग 22 करोड़ व्यक्ति 15 से 24 वर्ष के हैं।

जाहिर है, इस वर्ग को युवा फिल्में पसंद आएँगी। एक अन्य कारण यह है कि बॉक्स ऑफिस पर युवा वर्ग ही तय करता है कि फिल्म हिट होगी या पिटेगी। एक सर्वे के अनुसार 69 प्रश लोग अपने दोस्तों के साथ फिल्म देखते हैं। जाहिर है, ये युवा ही हैं। इसके अतिरिक्त 15 प्रतिशत लोग अपने परिवार के साथ, 13 प्रश जीवनसाथी के साथ और 3 प्रश लोग अकेले फिल्म देखते हैं।

दरअसल, जब से मल्टीप्लेक्स का दौर आया है तब से फिल्में देखना 'पारिवारिक पिकनिक' न रहकर दोस्तों की 'हैंगआउट' गतिविधि हो गई है। आज देश में लगभग 350 मल्टीप्लेक्स हैं। शहरी युवा अपने दोस्तों के साथ इन्हीं मल्टीप्लेक्स या मॉल में हैंगआउट कर रहा है। इसी ट्रेंड को भुनाने के लिए निर्माता युवाओं के लिए फिल्में बना रहे हैं।

युवा फिल्में युवा कलाकारों को लेकर बनाई जा रही हैं। ये युवा कलाकार खान त्रिमूर्ति की तुलना में बहुत कम पैसे चार्ज करते हैं, जिससे फिल्म का बजट अपने आप कम हो जाता है। कम बजट में रिटर्न तो कम होते हैं, लेकिन खतरा भी कम रहता है। मसलन, 'लंदन पेरिस न्यूयॉर्क' केवल 7 करोड़ के बजट में तैयार हुई और पहले ही सप्ताह में उसने 7.5 करोड़ रुपए कमा लिए।

दिलचस्प बात यह है कि न सिर्फ कलाकार युवा हैं, बल्कि निर्देशक और निर्माता भी कम उम्र के आ रहे हैं। फिल्मी किरदारों के नाम भी आधुनिक तर्ज पर कि यारा, रियाना आदि रखे जा रहे हैं। इन चरित्रों को आधुनिक कपड़े पहनाए जा रहे हैं। इन फिल्मों में विषय भी आज के माहौल के अनुरूप ही हैं।

मसलन, 'बैंड बाजा बारात' में अनुष्का शर्मा को रात जो कुछ गुजरा, उस पर सुबह कोई मलाल नहीं था। इसी प्रकार 'जिंदगी न मिलेगी दोबारा' में सगाई टूटने के बावजूद कलकी और अभय दोस्त रहते हैं। बॉलीवुड में सबकुछ परिवर्तन के दौर में है। इसमें शक नहीं है कि फिल्में ऐसी बन रही हैं, जो सोचने पर मजबूर करती हैं और वास्तविक जीवन के काफी करीब भी हैं, लेकिन अब भी ऐसी फिल्में कम बन रही हैं, जो दशकों तक मील का पत्थर बनी रहें। फिलहाल जो भी युवा फिल्में आई हैं, उनमें से किसी एक के बारे में भी ऐसा नहीं कहा जा सकता कि वह क्लासिक बनने की क्षमता रखती है।

वैसे फिल्मों के संदर्भ में सबकुछ बदल गया है। पहले एक फिल्म को हिट तब माना जाता था, जब वह कम से कम 25 सप्ताह एक हॉल में चल जाती थी। आज ऐसा नहीं है। आज पहले सप्ताह के कलेक्शन से ही अंदाजा कर लिया जाता है कि फिल्म हिट है या नहीं। जो फिल्में 150-200 करोड़ रुपए कमा रही हैं, वे भी हॉल में 3 सप्ताह से ज्यादा नहीं टिकतीं।

- कैलाश सिंह


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