पलटन की कहानी सुन मेरे तो रोंगटे खड़े हो गए थे: अर्जुन रामपाल

रूना आशीष
'मैं 'पलटन' करने के पहले बिलकुल नहीं जानता था कि 1967 में देश ने कोई लड़ाई भी लड़ी है। मेरे तो रोंगटे खड़े हो गए थे कि कैसे इस लड़ाई के बारे में बात नहीं होती। ये तो सच्ची घटना है।'
 
'पलटन' में लेफ्टिनेंट कर्नल रायसिंह यादव की भूमिका निभाने वाले अर्जुन का मानना है कि ये किरदार उनके नानाजी से बहुत मेल खाता है, जो खुद भी ब्रिगेडियर रह चुके हैं। नानाजी ने ब्रिटिश आर्मी जॉइन की थी और आजादी के बाद भी वो लंदन में जाकर कोर्स करके आए थे। तब ये ब्रिटेन और भारत के बीच एक करार हुआ था जिसकी वजह से कुछ ऑफिसर लंदन में ट्रेनिंग लेकर लौट सकते थे। तो लेफ्टिनेंट कर्नल रायसिंह ने भी वही ट्रेनिंग ली थी। दोनों बहुत ही कमाल की रणनीति बनाने वालों में से थे। 'वेबदुनिया' संवाददाता रूना आशीष से बातों का सिलसिला बढ़ाते हुए अर्जुन ने कई सारी बातों पर रोशनी डाली।

कैसा महसूस कर रहे थे ये किरदार करते वक्त?
बहुत सारी जिम्मेदारी का एहसास होता है। आपको लगता है कि आप किसी शख्स का रोल कर रहे हैं, जो कभी लोगों के जीवन का हिस्सा रहा है या उसके घरवाले भी उनके इस रूप को देख रहे हैं। थोड़े दिनों पहले मुझे उनकी ग्रेनेडियर से फोन आया था। जयपुर में उनका हेडक्वार्टर है वहां से। मुझे कहा गया आप ये रोल कर रहे हैं, तो एक बार मिलने आ जाइए, क्योंकि वो हमारे हीरो के समान हैं और हम नहीं चाहते कि उनके किरदार में कहीं कोई कमी रह जाए।

आपके नानाजी के बारे में कुछ और बताएं?
उनका नाम ब्रिगेडियर गुरदयाल रामपास था। वो आर्टिलरी कोर में थे। उन्होंने देवलाली (नासिक के करीब) में आर्टिलरी कॉलेज भी खोला था। उन्होंने देश की पहली गन डिजाइन की थी। वो द्वितीय विश्वयुद्ध में ब्रिटेन के साथ लड़ने गए थे। वो बहुत डेकोरेटेड ऑफिसर रह चुके हैं। देवलाली के कॉलेज में सारे सेवानिवृत्त या सेवारत ऑफिसर हर 3 साल में मिलते थे। उस समय मैं भी देवलाली में पढ़ रहा था, तो उस रीयूनियन में मैंने नानाजी को वर्दी में देखा था। उनकी वो वर्दी और उस पर सजे मेडल देखकर आंखें वहीं टकटकी लगाकर देखने लगती थीं। वैसे मेरे दादाजी भी ब्रिगेडियर थे।

'पलटन' में 1962 के भारत-चीन युद्ध का कितना जिक्र है?
मेरे हिसाब से तो वो कोई युद्ध था ही नहीं। चीनी सिपाही तो बस घुस आए हमारे बंकरों में और सोते जवानों पर गोलियां बरसाकर मार डाला। ये तो वो समय था, जब नेहरूजी ने यूनाइटेड नेशन में चीन की पैरवी करके कहा था कि इन्हें भी सदस्यता दी जाए। वो समय भी कुछ ऐसा था कि जब देश हाल ही में आजाद हुआ था, तो हमारी पूर्वोत्तर सीमा तय नहीं हुई थी। शायद चीन भी ये साबित करना चाहता था कि हमें किसी से कम न समझे। इसे कोई युद्ध कैसे कहे? बात तो तब हो, जब सीमा पर दोनों ओर से सिपाही तैनात रहें।

सिक्किम की क्या भूमिका थी इन सब में?
तब सिक्किम एक स्वतंत्र जगह हुआ करता था। वहां के राजा ने भारत से मदद मांगी थी कि आप हमें सुरक्षा दें, बदले में आपके सैनिक यहां रह सकेंगे। तो राजपूत बटालियन पहले ही 1962 में चीन से हार चुकी थी तो वो मलाल तो था दिल में, वहीं दूसरी ओर चीन धीरे-धीरे देश में घुसा आ रहा था तो लेफ्टिनेंटे रायसिंह और मेजर जनरल सागत सिंह ने मिलकर एक नीति के तहत एसओसी पर कांटे की बाड़ लगा दी। वहीं दोनों देशों के सिपाहियों में झड़प हो गई। और हमारी फौज की भाषा में इसे कहा जाता है कि 'वी गेव देम ए ब्लडी नोज।' इस जीत के तुरंत बाद सिक्किम हमारे देश का हिस्सा बन गया था। अब ये कहानी हमारे इतिहास का बड़ी हिस्सा क्यों नहीं बनी? या क्यों ये कहानी इतिहास से गायब हो गई? ये बात बहुत शॉकिंग है।

पर्दे पर चीनियों को मार भगाने के बाद चीनी सामान पर क्या प्रतिक्रिया है?
(हंसते हुए) अरे वो सिर्फ एक फिल्म ही तो है और बड़ी-बड़ी वॉर फिल्म करने के बाद ये ही शिक्षा मिलती है कि युद्ध न करो। आखिर वो भी तो इंसान ही हैं। सबकुछ शांति से चले तो क्या बुरा है? आशा है कि 'पलटन' देखने के बाद लोग इसी बात को जेहन में बैठाकर सिनेमा हॉल से बाहर निकलें।

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