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मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
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कश्मीर के सच से आँखें चुराती फिल्में

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दीपक असीम

कश्मीर समस्या को लेकर बनाई गई फिल्में इसलिए सफल नहीं होतीं, कि उनमें पूरा सच नहीं होता। कश्मीर को लेकर कई तरह के सच हैं। श्रीनगर के "टूरिस्ट सेंटर" में आतंकियों ने आग लगा दी थी। वे श्रीनगर-मुजफ्फराबाद बस सेवा शुरू किए जाने का विरोध कर रहे थे। तब टूरिस्ट सेंटर से लाइव रिपोर्टिंग कर रही थीं बरखा दत्त। बरखा का अनुमान था कि टूरिस्ट सेंटर के आस-पास खड़ी कश्मीरी जनता आतंकवादियों की इस हरकत की विरोधी है। सो उन्होंने लाइव रिपोर्टिंग के दौरान ही एक कश्मीरी से पूछ लिया कि इस हमले को लेकर आपके क्या विचार हैं। विचार जो थे, वो भारत विरोधी थे। उस आदमी ने भारत विरोधी बातें कहीं। बरखा दत्त ने फौरन उससे माइक लिया और कहा - कश्मीर में इस तरह की सोच भी कुछ लोग रखते हैं चलिए आपको वापस स्टूडियो लिए चलते हैं। बरखा दत्त जैसी अनुभवी रिपोर्टर के भी हाथ-पैर फूल गए थे। टीवी पर फिर वो फुटेज नहीं दिखाया गया। कश्मीरी जनता से अकसर लाइव बातचीत नहीं दिखाई जाती और इसकी शिकायत भी कश्मीर के लोग करते हैं।

कश्मीर के अलग-अलग सच हैं। फिल्मकार क्या दिखाए और क्या नहीं? न सच गले उतरता है न झूठ को दिल कबूल करता है। कुछ कश्मीरी हैं, जो पाकिस्तान में शामिल होना चाहते हैं। कुछ कश्मीरी हैं, जो चाहते हैं कि भारत और पाकिस्तान, दोनों ही उनका पिंड छोड़ दें और कश्मीर एकदम छुट्टा आजाद हो जाए। कुछ कश्मीरी अपना मुस्तकबिल भारत के साथ बने रहने में देखते हैं। नाराजगियाँ हैं और खूब हैं।

अधिकांश फौजियों की निगाह से कश्मीर का हर बाशिंदा आतंकवादी या आतंकियों को पनाह देने वाला है। आम कश्मीरी की नजर में हर फौजी जुल्म करने वाला है। घाटी छोड़ चुके कश्मीरी पंडितों के लिए कश्मीर का सच अलग है और कश्मीर के गाँवों में रहने वाले उन मासूमों के लिए अलग, जिनके लिए आतंकवादी भी उतने ही डरावने हैं जितने वर्दी वाले लोग।

कश्मीर के बाहर की सियासी पार्टियों के लिए कश्मीर देशभक्ति का भावनात्मक मुद्दा है। कश्मीर के अंदर की सियासी पार्टियाँ आजादी और खुदमुख्तारी का जाप करती हैं। गिलानी जैसा नेता पाकिस्तान का पिछलग्गू है, तो शब्बीर शाह भारत और पाकिस्तान, दोनों ही से आजादी की बात करने वाला। राज्य एक ही है, पर जम्मू का आदमी अलग बात करता है और कश्मीर का अलग। लेह-लद्दाख वालों की तो कोई सुनता भी नहीं।

किसी फिल्मकार में इतना साहस और कौशल नहीं है, जो सारे सच समेट ले और सबको इस तरह सामने रखे कि कोई विवाद न हो। लिहाजा "मिशन कश्मीर" जैसी घटिया फिल्में बनती हैं, जो समस्या को छूती तक नहीं, बस समस्या को मिले प्रचार का लाभ उठाती हैं।

अफसोस की बात है कि "परजानिया" बनाकर नाम कमाने वाले राहुल ढोलकिया ने भी "लम्हा" इसी तरह बनाई है। समस्या को सतही ढंग से छूती हुई, देखी-अनदेखी करती हुई। कश्मीर का सच कोई एक फिल्म नहीं दिखा सकती। एक कश्मीरी पत्रकार ने ड्रामा लिखकर कश्मीर की उन महिलाओं की समस्या उठाई है, जिन्हें हाफ विडो यानी "आधी विधवा" कहा जाता है। हाफ विडो यानी वे महिलाएँ जिनके पतियों को फौज, पुलिस या सुरक्षाबल के जवान "पूछताछ" के लिए ले गए और फिर उनका कोई अता-पता नहीं है। घाटी में ऐसी हजारों विधवाएँ हैं। लापता हुए लोगों के परिजन श्रीनगर में लगातार मिलते रहते हैं और सभाएँ करते रहते हैं।

तो इस तरह कश्मीर की समस्या को एक के बाद एक देखा जा सकता है। जिस समस्या को देखने के लिए हजारों ईमानदार वृत्त चित्रों की जरूरत है, उसे आप ढाई घंटे की उस फिल्म में नहीं देख सकते जिसमें चार-पाँच गाने भी हों और अनिवार्य रूप से नायक नायिका को इश्क भी लड़ाना हो।

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