Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
webdunia
Advertiesment

अंधे कुएँ में भाग्यवाद की भाँग

हमें फॉलो करें अंधे कुएँ में भाग्यवाद की भाँग

दीपक असीम

ऐसा क्यों है कि सेंसर बोर्ड केवल सेक्स, हिंसा और राजनीतिक टिप्पणियों पर कैंची चलाता है? क्या इसके अलावा हमारी फिल्मों में ऐसा कुछ नहीं होता, जो समाज के लिए हानिकारक हो? मिसाल के तौर पर अंधविश्वास, अवैज्ञानिक बातें...।

फिल्म "मिलेंगे-मिलेंगे" में नियति, भाग्य, किस्मत आदि का बहुत ढिंढोरा पीटा गया है। भाग्य और नियति फिल्म की रीढ़ की हड्डी है। बचाव के लिए एक टैरो कार्ड रीडर से कहलवाया गया है कि हमारा विश्वास ही हमारा भाग्य बनाता है। पता नहीं इस बकवास का क्या मतलब है।

असल बात तो यह है कि हमारा मिलना-बिछुड़ना इत्तफाक है और हमारे प्रेम संबंधों में बड़ा हाथ ताकतवर प्रकृति का है। यदि दो लोग एक-दूसरे को बहुत जँच रहे हैं, तो इसका मतलब यह है कि रिसाइकलिंग के लिए दोनों एक-दूसरे को अनुकूल पा रहे हैं। अब इसकी व्याख्या में आप चाहे जितना भाग्य, नियति आदि को घुसाइए आपकी मर्जी।

लोगों को ये मानने में बड़ा मजा आता है कि उनके साथ जो हो रहा है, वो नियति द्वारा नियत किया गया है। इसमें एक किस्म का अहं है कि मैं मामूली व्यक्ति नहीं हूँ मुझे दुःख मिलेगा या सुख, इसका लेखा पहले हो चुका है और लेखा-लिखा है, खुद नियति के नियंता ने। यानी भगवान ने। सर्वशक्तिमान भगवान मुझमें इंट्रेस्ट रखता है, मेरे बारे में सोचता है (भले ही दुःख दे), ये भावना ही अहं को संतुष्ट करती है, वरना इस आकाशगंगा में कितने ग्रह हैं। उनमें पृथ्वी की औकात क्या? और इतनी बड़ी पृथ्वी में सत्तर-अस्सी साल जीने वाले एक आदमी की औकात क्या? फिर अरबों साल की इस पृथ्वी पर सत्तर साल की औकात क्या?

सच तो यह है कि किसी को हमारी परवाह नहीं है। कौन इतने लोगों की नियति लिखेगा और फिर ये भी ध्यान रखेगा कि अमुक समय पर अमुक घटना हो। कोई एक नियति तो है नहीं। सबके जीवन एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। इतनी सारी एक-दूसरे से संबंधित नियतियाँ...।

यदि कोई नियंता है, तो वो लिखते हुए पागल हो गया होगा और लिखते हुए नहीं हुआ तो लिखने के बाद तो यकीनन हो ही गया होगा। लोगों के जीवन देखकर लगता है कि लिखते-लिखते ही पागल हुआ है, इतना दुःख, गरीबी, आत्महत्याएँ, बीमारियाँ, दंगे, दुर्घटनाएँ, कत्ल, बेवफाइयाँ, एकतरफा इश्क, बच्चों के साथ बलात्कार...। किसने नियत की हैं ये नियतियाँ...?

हमारे देश में वैज्ञानिक चेतना का ऐसा अभाव है कि डाइबिटीज की दवा लोग कड़वी चीजों में ढूँढते हैं। चूँकि डाइबिटीज की बीमारी का हिन्दी नाम "शकर की बीमारी" है, सो लोग इसका इलाज खुद ही कड़वी चीजें खाकर करने की कोशिश करते हैं।

वैज्ञानिक कहलाने वाले लोग तक कड़वी लौकी का जूस पीकर जहाँ जान दे देते हों, जहाँ विज्ञान पढ़ने वाले भी पास होने के लिए मानताएँ करते हों, टोटके करते हों, वहाँ अंधविश्वास का स्तर समझा जा सकता है। ऐसे में नियति और भाग्य का ढोल पीटने वाली फिल्मों को क्या रोका नहीं जाना चाहिए?

किसी भी तरफ से कोई आवाज नहीं उठती कि हमारे देश को भाग्यवादी मत बनाओ। खुद को जागरूक कहने वाला मीडिया दैनिक भविष्यफल छापता है और टीवी चैनलों में आक्टोपस पॉल की "भविष्यवाणियों" पर बहस होती है। जिस कुएँ में पहले से बहुत सारी भाँग पड़ी हो, उसमें और नशा उंडेलने पर क्या रोक नहीं होनी चाहिए?

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi