Cannes Film Festival: 24 मई भारत के सिनेमा के लिए 76वें कान फिल्म फेस्टिवल में बहुत खास दिन रहा। दोपहर में युधाजित बासु की शार्ट फिल्म 'नेहमीच' दिखाई गई। युधाजित बासु FTII के स्टूडेंट हैं और यह उनकी डिप्लोमा फिल्म है। नेहमीच का मतलब हमेशा या शाश्वत होता है।
23 मिनिट की यह मराठी भाषा की फिल्म महिलाओं के हर महीने के उन दिनों पर बनी फिल्म है जब उन्हें अछूत या गंदा मान लिया जाता है और फिर जो कुछ भी होता है उसको सहना उस इंसान की नियति है। गांव में इन महिलाओं को अलग झोपड़ियों में रहना होता है, उन्हें घर लौटने की मनाही है। इस हालत में जब कोरोना के चलते सभी को जब आइसोलेट में रहना पड़ा तब इन महिलाओं को उसे समझने और अपनाने में ज्यादा मुश्किल नहीं हुई क्योंकि उन्हें ऐसी बातों की तो पहले से ही आदत थी।
शाम को कनु बहल की फिल्म आगरा डायरेक्टर्स फोर्टनाईट सेक्शन में दिखाई गई। एक बिखरे हुए परिवार में जहां हर बात पर झगड़ा होना आम सी बात है, जहां पिता अपनी पहली और दूसरी पत्नी के साथ अपने 24 साल के बेटे के साथ रहता है। यह घर भी एक मूक किरदार की तरह कहानी में शामिल है।
गुरु (मोहित अग्रवाल) शुरू से ही असंतुलित किरदार है, कई बार लगता है कि यह कहानी कहीं आगरा के मानसिक रोग अस्पताल की तरफ तो नहीं जा रही है लेकिन जब उसे प्रीति (प्रियंका बोस) मिलती है तब उसे कोई ऐसा मिलता है जो उसके पाले में है और फिर अचानक जैसे सब बदल जाता है।
गुरु के पिता के रोल में राहुल रॉय (महेश भट्ट की आशिकी फिल्म वाले) हैं, बातों बातों में ही पता चलता है कि गुरु को पिता की तरफ से बहुत सख्ती मिली है। लेकिन फिर वो खुद भी वही करने लगता है जो उसने बर्दाश्त किया। एक तरफ उसपर दया आना चाहिए लेकिन ऐसा कुछ होता नहीं, बल्कि गुरु की हरकतें उसके खिलाफ माहौल बनाती रहती हैं।
चौबीस और पच्चीस की दरमियानी रात, बारह बजे अनुराग कश्यप अपनी पूरी टीम के साथ मशहूर लाल कारपेट से ढकी हुई सीढ़ियों पर चढ़ रहे थे। मौका था उनकी फिल्म का प्रीमियर जो कान फिल्म फेस्टिवल में मिडनाइट स्क्रीनिंग के रूप में हुआ। यह अनुराग का ही असर है कि आधीरात के बाद शुरू होने वाली फिल्म के लिए इस कदर भीड़ जमा हो गई।
इस फिल्म में राहुल भट्ट एक ऐसे अफसर के किरदार में है जो अपने सीनियर के कहने पर बिना सोचे समझे बस हत्या करता चला जा रहा है। इतने लोगों को मार चुका है कि गिनती भी याद नहीं है। अनुराग की यह फिल्म इतने सारे उतार चढ़ाव से गुजरती हैं लेकिन बस उस जगह तक नहीं पहुंच पाती जिसका शुरुआत में वादा किया था।
एक और फिल्म है जिसे भारत की नहीं कहा जा सकता क्योंकि उसे लंदन में रहने वाले डायरेक्टर धीरज अकोलकर ने बनाया है। यह डॉक्यूमेंट्री फिल्म अमेरिकी संगीतकार लिव उल्हरमैन पर बनी है। इसे देखने का मौका नहीं मिला क्योंकि टिकट नहीं मिले। लेकिन धीरज इसे BFI लंदन फिल्म फेस्टिवल में दिखाने की बात करते हैं।