सिनेमाघर से संसद की तरफ

दीपक असीम
प्रकाश झा की तमाम फिल्मों में सबसे कमजोर "राजनीति" है और विडंबना यह है कि व्यावसायिक रूप से भी सबसे सफल "राजनीति" ही है। इसकी सफलता में एक आयाम और जुड़ गया कि इसके पोस्टर को रायपुर में अलग ढंग से इस्तेमाल किया गया। वहाँ एक युवा नेता ने फिल्म के पोस्टर में राहुल गाँधी समेत स्थानीय नेताओं के चित्र लगा दिए और शायद एक खाना खाली छोड़कर कहा कि इस जगह आपका भी चित्र हो सकता है। आइए राजनीति में प्रवेश कीजिए। इस पर विवाद भी मचा।

जहाँ तक उन युवा नेता की नीयत का सवाल है, कोई शक नहीं कि वे युवाओं को राजनीति से जोड़ना चाहते हैं। तरीके को लेकर बहस हो सकती है, हो रही है। मीडिया का कहना है कि राजनीति को ग्लैमराइज्ड किया जा रहा है। पर कोई बताए कि इसमें क्या बुराई है? हम कब तक आदर्शों के हवामहल में रहेंगे? कितने लोग हैं, जो सिर्फ जनता की सेवा के लिए राजनीति में आते हैं? अगर कोई खुल्लमखुल्ला कहे कि मैं पद और ताकत (और पैसे) के लिए राजनीति में जा रहा हूँ, तो उसका स्वागत किया जाना चाहिए। जब आजीविका के लिए चिकित्सा जैसा नोबल पेशा चुना जाता है, तो राजनीति में क्या बुराई है?

कुछ लोग हैं, जो हमेशा सांसदों और विधायकों के वेतन भत्ते की मुखालफत करते हैं। नहीं करना चाहिए। हमें अपने नेताओं को इतना पैसा देना चाहिए ताकि उनके पास भ्रष्टाचार का कोई कुतर्क नहीं रहे। चुनाव हारने वाले नंबर दो पर रहने वाले आदमी को भी कुछ मिलना चाहिए। हमारे यहाँ तो उलटे जमानत जमा करानी पड़ती है, जो अक्सर जब्त भी हो जाया करती है। सियासी पार्टियों को चाहिए कि वो चंदे में से अपने "फुलटाइमरों" को पैसा दें। सुना है कम्युनिस्ट पार्टियों में ऐसा कुछ होता है। राजनीति अगर निश्चित और सम्मानपूर्ण रोजगार देने वाला करियर बन जाए, तो हमारे देश के बेहतरीन युवा राजनीति में जा सकते हैं। फिलहाल तो ऐसे छँटे-छँटाए आते हैं जो कहीं और नहीं अंट सकते। कोई नेता का बेटा होता है तो कोई भतीजा।

राजनीति में अगर पैसा भी नहीं मिले और गालियाँ भी पड़ती रहें, तो राजनीति में आएगा कौन? और अगर कोई नहीं आया, तो लोकतंत्र बचेगा कैसे?...तो हमें राजनीति के ग्लैमर को स्वीकारने में संकोच नहीं करना चाहिए। फिल्म "राजनीति" की कामयाबी में बड़ा हाथ उस पोस्टर का भी है, जिसमें सभी सितारे प्रभावी मुद्राओं में दिख रहे हैं। दिक्कत बस एक है कि फिल्म में एक भी चरित्र पूरी तरह बेदाग नहीं है। हमें राजनीति में युवा तो चाहिए मगर फिल्म "राजनीति" के पात्रों की तरह विचारधाराविहीन, हिंसक और लंपट नहीं। पिछले दिनों फिल्म "रावण" के पोस्टरों का भी बड़ा सटीक इस्तेमाल भोपाल गैसकांड में हुआ था। इसमें कुछ बुराई नहीं है। ये तो इस बात का संकेत है कि राजनीति में युवा आ रहे हैं, युवा सोच आ रही है। ऐसे युवा, जिनका एक पैर सिनेमाघर में है और दूसरा वे नगर निगम, विधानसभा और संसद में रखना चाह रहे हैं।

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