- दिव्या आर्य
कौन-सा मर्द ख़ूबसूरत माना जाए? एक सर्द शाम में गर्म चाय की चुस्कियों के बीच मैं और मेरी सहेलियां इसी सवाल पर बहस कर रही थीं। मेरी छोटे कद की तंदरुस्त दोस्त ने कहा, 'मुझे ना ज़्यादा लंबा पसंद है ना ज़्यादा पतला। बल्कि थोड़ा मोटा हो तो सही रहेगा ताकि मुझ पर हर व़क्त भूखे रहकर उसके जैसा बनने का दबाव ना हो।'
पर इस पर दूसरी बोली, 'नहीं! मैं मोटे, तोंदवाले मर्दों को बर्दाश्त ही नहीं कर सकती! मुझे तो वो बदसूरत से लगते हैं! और हां, मुझे शरीर पर बाल भी सख़्त नापसंद हैं।' 'फ़िल्म 'टाइटैनिक' याद है, जब लिओनार्डो डी कैप्रियो स्केच बनाते हैं, मुझे वैसे ही 'मैनिक्योर' किए हुए नाख़ून पसंद हैं।'
फिर एक और दोस्त थी जिसे घुंघराले बालों का शौक है। उसने कहा, 'भूरे घुंघराले बालों वाला 'हिप्पी लुक' चाहिए मुझे। और साथ में अगर वो चश्मा पहनता हो तो क्या बात है!' हंसते हुए बोली, 'ऐसे मर्दों को देख लगता है कि सोच गहराई वाली है और शक्ल-सूरत स्टाइलिश।'
उलझन
मैं उलझन में थी क्योंकि इनमें से कोई भी छह फ़ीट के क़द, गोरे या गेहुंए रंग, काले-रेशमी बालों और डोलों की बात नहीं कर रही थीं। ख़ूबसूरत मर्द के नाम पर मन में ह्रितिक रोशन, शाहरुख़ ख़ान और रणवीर सिंह की जो छवि उभरी थी वो धुंधली होने लगी थी। आख़िर ये लड़कियां तो इनमें से किसी का भी सपना नहीं देख रही थीं। बल्क़ि वो तो किसी एक हीरो की तलाश में ही नहीं थीं। उनके हीरो तो अलग-अलग और अनोखे थे। और आम समझ वाले हीरो तो वो थे ही नहीं।
तभी तो जब एक लोकप्रिय टीवी शो ने बहस के लिए मुद्दा चुना- 'कौन-सी औरतें ख़ूबसूरत हैं- केरल की या तमिलनाडु की?'- तो उन्होंने उसे उल्टाकर अपनी एक बहस करने की ठानी कि, कौन-से मर्द ख़ूबसूरत हैं?
मैं इसके विरोध में थी क्योंकि ऐसा कर वो भी तो वही कर रही थीं जो वो टीवी शो करने वाला था? यानी दो इलाकों की औरतों की तुलना महज़ उनके ऊपरी रंग-रूप की बिनाह पर। औरतों को सिर्फ़ उनके रूप तक सीमित करना और एक इलाके की सभी औरतों को एक ही ख़ांचे में बांध देना।
भला एक प्रदेश की सब औरतें एक तरह की कैसे हो सकती हैं! मेरी पड़ोसन तक मुझसे बहुत अलग दिखती है, दूसरा पहनावा है और मुख़्तलिफ़ तरीके से पेश आती है। टीवी शो तो एक कदम आगे बढ़कर बहस के मुद्दे को सोशल मीडिया पर 'वोटिंग' के लिए ले गया। सवाल वही था 'कौन-सी औरतें ख़ूबसूरत हैं- केरल की या तमिलनाडु की?'
विरोध
फिर क्या, विरोध की लहर दौड़ गई। आरोप ये कि ये वोटिंग और बहस 'औरतों को सिर्फ़ ख़ूबसूरती के चश्मे से देखकर सामान की तरह' पेश कर रहे हैं। आख़िरकार टीवी चैनल ने बहस का प्रसारण रोक दिया और इंटरनेट पर डाली गई वोटिंग और वीडियो प्रोमो हटा दिए।
मेरी सहेलियों की चाय पार्टी कुछ हद तक इसी का जश्न मना रही थी कि एक लोकप्रिय टीवी शो अब औरतों की ख़ूबसूरती के बारे में बनी रूढ़ीवादी समझ को आगे नहीं बढ़ाएगा और ना ही उन्हें महज़ उनके रंग-रूप के लिए पूजेगा।
पर इस पार्टी में ख़ूबसूरत मर्दों पर जैसी बहस हुई उसे देख मैंने अपनी सहेलियों से पूछा, 'तो अब तुम लोग मर्दों को उसी चश्मे से क्यों आंक रही हो? तुम मर्दों के व्यक्तित्व के और पहलुओं पर बात क्यों नहीं कर रही हो? उनका मिज़ाज, कितने पढ़े-लिखे हैं, उनकी राजनीतिक सोच, दुनिया की समझ वगैरह।'
क्या हो पैमाना?
क्या ये सब एक इंसान की ख़ूबसूरती आंकने के पैमाने नहीं हैं?
एक आवाज़ में उन सबने जवाब दिया, 'क्योंकि तुम मज़ाक नहीं समझती हो। ये कोई टीवी शो थोड़े ही है। इन हल्की-फुल्की बातों से कोई नुक़सान नहीं है, इन पर हंसना सीखो और मस्त रहो।'
पर मैं पलटकर बोली, 'यही परेशानी है।' ख़ूबसूरत नैन नक़्श और सुंदर शरीर वाले मर्द मुझे भी पसंद हैं और किसी आम इंसान की तरह मैं भी पहली समझ उनके रूप रंग को देखकर ही बनाती हूं। लेकिन मज़ाक में ही सही जब हम मर्द और औरतों को सिर्फ़ सबसे 'सुंदर' शरीर वाले लोगों के पैमाने पर आंकने लगते हैं तो हम ऐसी धारणा को सही ठहरा देते हैं।
शायद इसीलिए दर्जनों लड़कियां उस टीवी शो में भाग लेने को तैयार हो गईं और चैनल ने बहस के लिए ऐसा मुद्दा चुना। उन्हें लगा कि ये बिना नुक़सान वाला हल्का-फुल्का मज़ा होगा। पर क्या मज़ाक में किया ऐसा हल्का-फुल्का मज़ा ही धीरे-धीरे अंधाधुंध 'डाइट', 'डिप्रेशन', अपने में विश्वास खोने और पतला दिखने के लिए 'लिपोसक्शन' जैसे रास्ते अपनाने का दबाव नहीं बनाता है?