विजय दिवस : 13 दिन की भारत-पाकिस्तान की लड़ाई और बांग्लादेश का जन्म

BBC Hindi
बुधवार, 16 दिसंबर 2020 (09:40 IST)
16 दिसंबर- भारत में ये दिन विजय दिवस के रूप में मनाया जाता है। 1971 में इसी दिन पाकिस्तानी सेना ने भारत के सामने समर्पण किया था जिसके बाद 13 दिन तक चला युद्ध समाप्त हुआ। साथ ही जन्म हुआ बांग्लादेश का।1971 के ऐतिहासिक युद्ध में पूर्वी कमान के स्टाफ़ ऑफ़िसर मेजर जनरल जेएफ़आर जैकब ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।उस वक़्त भारतीय सेना के प्रमुख फ़ील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ ने मेजर जनरल जैकब को ही समर्पण की सारी व्यवस्था करने के लिए ढाका भेजा था।

16 दिसंबर को पाकिस्तान के जनरल नियाज़ी के साथ क़रीब 90 हज़ार पाकिस्तानी सैनिकों ने भारतीय सेना के सामने हथियार डाले थे।1971 के अभियान पर दो पुस्तकें लिख चुके जैकब गोवा और पंजाब के राज्यपाल भी रहे। बीबीसी संवाददाता रेहान फ़ज़ल ने कुछ वर्ष पहले मेजर जनरल जैकब से मुलाक़ात कर 1971 की लड़ाई के बारे में कई सवाल पूछे।

आम धारणा यह है कि भारत का राजनीतिक नेतृत्व यह चाहता था कि भारतीय सेना अप्रैल 1971 में ही बांग्लादेश के लिए कूच करे लेकिन सेना ने इस फ़ैसले का विरोध किया। इसके पीछे क्या कहानी है?

मानेकशॉ ने अप्रैल के शुरू में मुझे फ़ोन कर कहा कि बांग्लादेश में घुसने की तैयारी करिए क्योंकि सरकार चाहती है कि हम वहाँ तुरंत हस्तक्षेप करें। मैंने मानेकशॉ को बताने की कोशिश की कि हमारे पास पर्वतीय डिवीजन हैं, हमारे पास कोई पुल नहीं हैं और मानसून भी शुरू होने वाला है। हमारे पास बांग्लादेश में घुसने का सैन्य तंत्र और आधारभूत सुविधाएं नहीं हैं।

अगर हम वहाँ घुसते हैं तो यह पक्का है कि हम वहाँ फँस जाएंगे। इसलिए मैंने मानेकशॉ से कहा कि इसे 15 नवंबर तक स्थगित करिए तब तक शायद ज़मीन पूरी तरह से सूख जाए।

आपने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि मानेकशॉ ने अपनी योजना में राजधानी ढाका पर कब्ज़ा करना शामिल नहीं किया था। उनके इस फ़ैसले के पीछे क्या कारण थे?

मैंने उनसे कहा कि अगर हमें युद्ध जीतना है तो ढाका पर कब्ज़ा करना ही होगा क्योंकि उसका सामरिक महत्व सबसे ज़्यादा है और वह पूर्वी पाकिस्तान का एक तरह से भूराजनीतिक दिल भी है।

मुझे पता नहीं कि इसके पीछे क्या कारण थे। मुझे सिर्फ़ इतना मालूम है कि हमें सिर्फ़ खुलना और चटगाँव पर कब्ज़ा करने के आदेश मिले थे। मेरी उनसे लंबी बहस भी हुई थी। मैंने उनसे कहा था कि खुलना एक मामूली बंदरगाह है।

उनका कहना था कि अगर हम खुलना और चटगाँव ले लेते हैं तो ढाका अपने आप गिर जाएगा। मैंने पूछा कैसे ? यह तर्क चलते रहे और अंतत: हमें खुलना और चटगाँव पर कब्ज़ा करने के ही लिखित आदेश मिले।

एयरमार्शल पीसी लाल इसकी पुष्टि करते हैं। वह कहते हैं कि ढाका पर कब्ज़ा करना कभी भी लक्ष्य नहीं था। लक्ष्य यह था कि निर्वासित सरकार के लिए जितना संभव हो उतनी ज़मीन जीत ली जाए। वह यह भी कहते हैं कि इस अभियान के दौरान सेना मुख्यालय में आपसी सामंजस्य नहीं था।

क्या यह सही है कि अगर पाकिस्तान ने तीन दिसंबर को भारत पर हमला नहीं किया होता तो आपने उन पर चार दिसंबर को हमला बोल दिया होता?

जी यह सही है। मैंने उपसेनाध्यक्ष से मिलकर हमले की तारीख़ पाँच दिसंबर तय की थी लेकिन मानेकशॉ ने इसे एक दिन पहले कर दिया था क्योंकि चार उनका भाग्यशाली अंक था।

पाँच दिसंबर चुनने के लिए कोई ख़ास वजह?

इसकी सिर्फ़ एक ही वजह थी कि तब तक सब कुछ व्यवस्थित किया जा चुका था और हमें आक्रमण शुरू करने के लिए और समय की ज़रूरत नहीं थी।

क्या यह सही है कि इस पूरे युद्ध के दौरान मानेकशॉ को आशंका थी कि चीन भारत पर आक्रमण कर देगा। आपने उनकी जानकारी के बिना चीन सीमा से तीन ब्रिगेड हटा कर बांग्लादेश की लड़ाई में लगा दी थी। जब उनको इसका पता चला तो उनकी क्या प्रतिक्रिया थी?

हमें पता था कि पाकिस्तान की रणनीति शहरों की रक्षा करने की थी। इसलिए हम उनको बाईपास करते हुए ढाका की तरफ़ आगे बढ़े थे। 13 दिसंबर को अमरीकी विमानवाहक पोत मलक्का की खाड़ी में घुसने वाला था और मुझे मानेकशॉ का आदेश मिला कि हम वापस जाकर उन सभी शहरों पर कब्ज़ा करें जिन्हें हम बीच में बाईपास कर आए थे।

उन्होंने इन ब्रिगेडों को वापस चीन सीमा पर जाने का आदेश दिया। मैंने और इंदर गिल ने मिलकर यह फ़ैसला किया था क्योंकि ढाका के अभियान में और सैनिकों की ज़रूरत थी।

मैं भूटान में तैनात 6 डिवीजन को इस्तेमाल करना चाहता था लेकिन उन्होंने इसकी अनुमति नहीं दी। मैं सैनिकों को नीचे ले आया लेकिन उनको पता चल गया और उन्होंने उनकी वापसी का आदेश दिया। लेकिन हमने उनको वापस नहीं भेजा।

16 दिसंबर का दिन याद करिए जब आपके पास मानेकशॉ का फ़ोन आया कि ढाका जाकर आत्मसमर्पण की तैयारी कीजिए।

16 दिसंबर को मेरे पास मानेकशॉ का फ़ोन आया कि जेक ढाका जाकर आत्मसमर्पण करवाइए। मैं जब ढाका पहुंचा तो पाकिस्तानी सेना ने मुझे लेने के लिए एक ब्रिगेडियर को कार लेकर भेजा हुआ था।

मुक्तिवाहिनी और पाकिस्तानी सेना के बीच लड़ाई जारी थी और गोलियाँ चलने की आवाज़ सुनी जा सकती थी। हम जैसे ही उस कार में आगे बढ़े मुक्ति सैनिकों ने उस पर गोलियाँ चलाई।

मैं उन्हें दोष नहीं दूँगा क्योंकि वह पाकिस्तान सेना की कार थी। मैं हाथ ऊपर उठाकर कार से नीचे कूद पड़ा। वह पाकिस्तानी ब्रिगेडियर को मारना चाहते थे। हम किसी तरह पाकिस्तानी सेना के मुख्यालय पहुँचे।

जब मैंने नियाज़ी को आत्मसमर्पण का दस्तावेज़ पढ़ कर सुनाया तो वह बोले किसने कहा कि हम आत्मसमर्पण करने जा रहे हैं। आप यहां सिर्फ़ युद्धविराम कराने आए हैं। यह बहस चलती रही। मैंने उन्हें एक कोने में बुलाया और कहा हमने आपको बहुत अच्छा प्रस्ताव दिया है।

इस पर हम वायरलेस से पिछले तीन दिनों से बात करते रहे हैं। हम इससे बेहतर पेशकश नहीं कर सकते। हम यह सुनिश्चित करेंगे कि अल्पसंख्यकों और आपके परिवारों के साथ से अच्छा सुलूक किया जाए और आपके साथ भी एक सैनिक जैसा ही बर्ताव किया जाए।

इस पर भी नियाज़ी नहीं माने। मैंने उनसे कहा कि अगर आप आत्मसमर्पण करते हैं तो आपकी और आपके परिवारों की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी हमारी होगी लेकिन अगर आप ऐसा नहीं करते तो ज़ाहिर है हम कोई ज़िम्मेदारी नहीं ले सकते। उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया।

मैंने उनसे कहा मैं आपको जवाब देने के लिए 30 मिनट देता हूँ। अगर आप इसको नहीं मानते तो मैं लड़ाई फिर से शुरू करने और ढाका पर बमबारी करने का आदेश दे दूँगा। यह कहकर मैं बाहर चला गया। मन ही मन मैंने सोचा कि यह मैंने क्या कर दिया है।

मेरे पास कुछ भी हाथ में नहीं है। उनके पास ढाका में 26400 सैनिक हैं और हमारे पास सिर्फ़ 3000 सैनिक हैं और वह भी ढाका से 30 किलोमीटर बाहर!

अगर वह नहीं कह देते हैं तो मैं क्या करूँगा। मैं 30 मिनट बाद अंदर गया। आत्मसमर्पण दस्तावेज़ मेज़ पर पड़ा हुआ था। मैंने उनसे पूछा क्या आप इसे स्वीकार करते हैं। वह चुप रहे। मैंने उनसे तीन बार यही सवाल पूछा। फिर मैंने वह काग़ज़ मेज़ से उठाया और कहा कि मैं अब यह मान कर चल रहा हूँ कि आप इसे स्वीकार करते हैं।

पाकिस्तानियों के पास ढाका की रक्षा के लिए 30000 सैनिक थे तब भी उन्होंने हथियार क्यों डाले?

मैं यहाँ पर हमुदुर्रहमान आयोग की एक कार्रवाई के एक अंश को उद्धृत करना चाहूँगा। उन्होंने नियाज़ी से पूछा आपके पास ढाका के अंदर 26400 सैनिक थे जबकि भारत के पास सिर्फ़ 3000 सैनिक थे और आप कम से कम दो हफ़्तों तक और लड़ सकते थे।

सुरक्षा परिषद की बैठक चल रही थी। अगर आप एक दिन और लड़ पाते तो भारत को शायद वापस जाना पड़ता। आपने एक शर्मनाक और बिना शर्त सार्वजनिक आत्मसमर्पण क्यों स्वीकार किया और आपके एडीसी के नेतृत्व में भारतीय सैनिक अधिकारियों को गार्ड ऑफ़ ऑनर क्यों दिया गया?

नियाज़ी का जवाब था, मुझे ऐसा करने के लिए जनरल जेकब ने मजबूर किया। उन्होंने मुझे ब्लैकमेल किया और हमारे परिवारों को संगीन से मारने की धमकी दी। यह पूरी बकवास थी। आयोग ने नियाज़ी को हथियार डालने का दोषी पाया। इसकी वजह से भारत एक क्षेत्रीय महाशक्ति बना और एक नए देश बांग्लादेश का जन्म हो सका।

ऑब्ज़र्वर के गैविन यंग ने सरेंडर लंच का ज़िक्र किया है, जिसमें पाकिस्तानी सेना के उच्चाधिकारी शामिल हुए थे।

मैं गैविन को काफ़ी समय से जानता था। वह मुझसे नियाज़ी के दफ़्तर के बाहर मिले और कहा जनरल मैं बहुत भूखा हूँ। क्या आप मुझे खाने के लिए अंदर बुला सकते हैं? मैंने उन्हे बुला लिया। खाने की मेज़ पर खाना लगा हुआ था...काँटे छुरी के साथ जैसे कि मानो पीस टाइम पार्टी हो रही हो।

मैं एक कोने में जाकर खड़ा हो गया। उन्होंने मुझसे खाने के लिए कहा लेकिन मुझसे खाया नहीं गया। गैविन ने इस पर एक लेख लिखा जिस पर उन्हें पुरस्कार भी मिला।

जब आप जनरल नियाज़ी के साथ जनरल अरोड़ा को रिसीव करने ढाका हवाई अड्डे पहुँचे तो वहाँ मुक्तिवाहिनी के कमांडर टाइगर सिद्दीकी भी एक ट्रक में अपने सैनिकों के साथ पहुँचे हुए थे।

मैंने अपने दोनों सैनिकों को नियाज़ी के सामने खड़ा किया और टाइगर के पास गया। मैंने उनसे हवाई अड्डा छोड़ कर जाने के लिए कहा। उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया। मैंने कहा अगर आप नहीं जाते तो मैं आप पर गोली चलवा दूँगा। मैंने अपने सैनिकों से कहा कि वह टाइगर पर अपनी राइफ़लें तान दें। टाइगर सिद्दीकी इसके बाद वहाँ नहीं रुके।

हमारे पास एक भी सैनिक नहीं था। संयोग से मैंने दो पैराट्रूपर्स को अपने साथ रखा हुआ था। सिद्दीकी एक ट्रक भर अपने समर्थकों के साथ वहाँ पहुँच गए। मुझे नहीं पता कि वह वहाँ क्यों आए थे लेकिन ऐसा लग रहा था कि वे नियाज़ी को मारना चाहते थे।

इंदिरा गांधी ने संसद में घोषणा की थी कि पाकिस्तानी सेना ने 4 बजकर 31 मिनट पर हथियार डाले थे लेकिन वास्तव में यह आत्मसमर्पण 4 बज कर 55 मिनट पर हुआ था। इसके पीछे क्या वजह थी?

मुझे पता नहीं कि इसके पीछे क्या वजह थी। शायद किसी ज्योतिषी की सलाह पर ऐसा किया गया होगा। मैं सिर्फ़ इतना जानता हूँ कि दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर 5 बजने में 5 मिनट कम पर हुए थे। दस्तावेज़ में भी कुछ ग़लतियां थीं। इसलिए दो सप्ताह बाद अरोड़ा और नियाज़ी ने कलकत्ता में दोबारा उन दस्तावेज़ों पर हस्ताक्षर किए।

बांग्लादेश की वो सबसे हृदय-विदारक घटना
उस क्षण को याद कीजिए जब नियाज़ी ने अपनी पिस्टल निकाल कर जगजीत सिंह अरोड़ा को पेश की।

मैंने नियाज़ी से तलवार समर्पित करने के लिए कहा। उन्होंने कहा मेरे पास तलवार नहीं है। मैंने कहा कि तो फिर आप पिस्टल समर्पित करिए। उन्होंने पिस्टल निकाली और अरोड़ को दे दी। उस समय उनकी आँखों में आँसू थे।

उस समय अरोड़ा और नियाज़ी के बीच कोई बातचीत हुई?

उन दोनों और किसी के बीच एक भी शब्द का आदान-प्रदान नहीं हुआ। भीड़ नियाज़ी को मार डालना चाहती थी। वह उनकी तरफ़ बढ़े भी। हमारे पास बहुत कम सैनिक थे लेकिन फिर भी हमने उन्हें सेना की जीप पर बैठाया और सुरक्षित जगह पर ले गए।

आपकी किताबों से यह आभास मिलता है कि लड़ाई के दौरान भारतीय जनरलों की आपस में नहीं बन रही थी। मानेकशॉ की अरोड़ा से पटरी नहीं खा रही थी। अरोड़ा सगत सिंह से ख़ुश नहीं थे। रैना के नंबर दो भी उनकी बात नहीं सुन रहे थे।

सबसे बड़ी समस्या यह थी कि दिल्ली में वायु सेनाध्यक्ष पीसी लाल और मानेकशॉ के बीच बातचीत तक नहीं हो रही थी। लड़ाई के दौरान बहुत से व्यक्तित्व आपस में टकरा रहे थे। मेरे और मानेकशॉ के संबंध बहुत अच्छे थे। उनसे मेरे संबंध बिगड़ने तब शुरू हुए जब 1997 में मेरी किताब प्रकाशित हुई।

मानेकशॉ को एक जनरल के रूप में आप कैसा रेट करते हैं?

मैं इस पर कोई टिप्पणी नहीं करना चाहूँगा।
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