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तालिबान के सामने क्या अमेरिका को झुकना पड़ा?

हमें फॉलो करें तालिबान के सामने क्या अमेरिका को झुकना पड़ा?

BBC Hindi

, रविवार, 1 मार्च 2020 (12:56 IST)
सिकंदर किरमानी, बीबीसी न्यूज़, काबुल
अमेरिका, अफ़ग़ान और तालिबान अधिकारी शनिवार को क़तर दोहा में हुए समझौते को 'शांति समझौता' कहने से बच रहे हैं। लेकिन अफ़ग़ानिस्तान में सतर्कता के साथ एक उम्मीद है कि समझौते के अस्तित्व में आने के बाद 'हिंसा में कमी आएगी' या एक आंशिक युद्धविराम लागू होगा।
 
तो यह स्थिति यहां तक कैसे पहुंची? और इसके होने के लिए इतना समय क्यों लगा? दो दशक से जारी अफ़ग़ान युद्ध में काफ़ी ख़ून बह चुका है। तालिबान अब भी अफ़ग़ानिस्तान के बहुत सारे क्षेत्रों पर नियंत्रण रखता है लेकिन वो अभी प्रमुख शहरी केंद्रों को नियंत्रण करने में असमर्थ है।
 
हालांकि, इस दौरान तालिबान और अमेरिका दोनों नेतृत्वों को ये अहसास हो गया कि दोनों ही सैन्य ताक़त से जीत दर्ज करने में असमर्थ हैं। इसी दौरान अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने साफ़ कर दिया कि वो इस देश से अपने सैनिक वापस बुलाएंगे।
 
अमेरिका की रियायत के बाद वार्ता
आख़िर में अमेरिका ने मुख्य छूट दी और उसके बाद दोनों के बीच वार्ता हो सकी। 2018 में अमेरिका ने तालिबान को उस शर्त में छूट दे दी थी जिसके तहत उसे सबसे पहले अफ़ग़ान सरकार से बात करनी थी। अफ़ग़ान सरकार तालिबान को हमेशा ख़ारिज करती रही है।
 
अमेरिका ने तालिबान के साथ सीधे बातचीत की और अफ़गानिस्तान में विदेशी सैनिकों की मौजूदगी की मुख्य मांग को सुना। इस बातचीत के बाद शनिवार को हुआ समझौता अस्तित्व में आया जिसमें यह भी तय हुआ कि तालिबान 2001 के अमेरिकी हमलों के कारणों में से एक अलक़ायदा के साथ अपने संबंधों पर भी ग़ौर करेगा।
 
इस समझौते ने बातचीत के दरवाज़े खोले हैं जिसके बाद चरमपंथी और दूसरे अफ़ग़ान राजनीतिज्ञों के बीच बातचीत होगी, इसमें सरकार के नेता भी शामिल हैं।
 
अफ़ग़ान सरकार के साथ बातचीत चुनौतीपूर्ण?
यह बातचीत बहुत चुनौतीपूर्ण होने वाली है क्योंकि यहां कैसे भी तालिबान के 'इस्लामिक अमीरात' के सपने और 2001 के बाद बने आधुनिक लोकतांत्रिक अफ़ग़ानिस्तान के बीच एक सुलह करनी होगी।
 
महिलाओं के क्या अधिकार होंगे? लोकतंत्र पर तालिबान का क्या रुख़ है? ऐसे सवालों के जवाब तभी मिल पाएंगे जब 'अफ़ग़ान वार्ता' शुरू होगी।
 
तब तक तालिबान शायद जानबूझकर अस्पष्ट रहेगा। इस बातचीत के शुरू होने से पहले कई बाधाएं रहेंगी। तालिबान चाहता है कि इस बातचीत के शुरू होने से पहले उसके 5,000 लड़ाकों को छोड़ा जाए।
 
अफ़ग़ान सरकार अपनी क़ैद में मौजूद इन लड़ाकों के ज़रिए तालिबान के साथ मोलभाव करना चाहती है ताकि तालिबान युद्धविराम के लिए राज़ी हो जाए।
 
वहीं, राष्ट्रपति चुनाव परिणाम को लेकर राजनीतिक संकट जारी है। अशरफ़ ग़नी के विरोधी अब्दुल्ला अब्दुल्ला ने धोखेबाज़ी का आरोप लगाया है।
 
राजनीतिक अस्थिरता के बीच बातचीत के लिए एक 'समावेशी' बातचीत टीम बना पाना काफ़ी कठिन हो सकता है क्योंकि उस समय अंतरराष्ट्रीय पर्यवेक्षक मौजूद रहेंगे और वो तालिबान को बातचीत की मेज़ पर देखना चाहेंगे।
 
समझौता नाकाम होने पर क्या होगा?
एक अफ़ग़ान अधिकारी ने मुझसे इस बात को स्वीकार किया कि जब 'अफ़ग़ान वार्ता' शुरू होगी तो यह सालों भी ले सकती है। लेकिन अमेरिका  ने संकेत दिए हैं कि अगर तालिबान समझौते पर अपने वादे को पूरा करता है तो वो 14 महीनों में अपनी सेना को हटा लेगा।
 
हालांकि, अभी यह साफ़ नहीं है कि अगर कोई बातचीत किसी हल तक नहीं पहुंची तो अमेरिका  वहां कब तक रुकेगा।
 
अफ़ग़ान अधिकारियों ने ज़ोर दिया है कि अमेरिकी सेनाओं का जाना 'सशर्त' है लेकिन एक राजनयिक ने मुझे बताया कि सेना का जाना 'अफ़ग़ान वार्ता' के शुरू होने पर ही होगा न कि इसके पूरा होने पर।
 
उन्होंने चिंता जताई कि अगर अमेरिका  अपने सुरक्षाबलों को निकाल लेता है और तालिबान युद्ध मैदान में उतर जाता है तो अफ़ग़ान सुरक्षाबल अकेले पड़ जाएंगे।
 
दूसरे विश्लेषकों ने चेताया है कि तालिबान रियायत देने के मूड में नहीं दिख रहा है। उसने अपने समर्थकों के आगे इस समझौते को एक 'जीत' के रूप में पेश किया है। तालिबान अंतरराष्ट्रीय वैधता और मान्यता चाहता है।
 
दोहा में धूमधाम से हुए समझौते ने उन्हें ऐसे पहचान दी है और वे महसूस करते हैं कि बातचीत उनके मक़सद को पूरा करने का सबसे अच्छा मौक़ा है। अधिकतर आम अफ़ग़ानी लोगों की प्राथमिकता हिंसा में कमी लाना है।

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