सांकेतिक तस्वीर
- मोहम्मद शाहिद
अरबी भाषा में सूडान का अर्थ 'काले लोगों का देश' होता है। 1 जनवरी 1956 को आज़ाद होने के बाद अधिकतर समय सैन्य शासन और गृह युद्ध से जूझता रहा उत्तर-पूर्व अफ़्रीका का देश सूडान आज लोकतंत्र के लिए आवाज़ बुलंद कर रहा है। बीते रविवार से कामगार लोगों ने राष्ट्रीय हड़ताल की घोषणा की जिसके बाद वह राजधानी खार्तूम की सड़कों पर गए। उनकी मांग है कि सैन्य शासन हटाकर नागरिक सरकार बहाल की जाए। इस दौरान सेना ने बल प्रयोग किया जिसमें चार लोगों की मौत हुई है।
विपक्षी नेता मोहम्मद एस्मत, इस्माइल जलाब और उनके प्रवक्ता मुबारक अर्दोल को गिरफ़्तार कर लिया गया है। लोकतंत्र की चाह लिए सूडान और उसके लोग ऐतिहासिक परिवर्तनकाल से गुज़रे हैं। एक समय अफ़्रीका के सबसे बड़े देश रहे सूडान में 2011 में विभाजन हुआ और दक्षिण सूडान नामक एक नया देश बन गया। लेकिन यह विभाजन की लकीर 19वीं सदी से कई दशक पहले खिंच चुकी थी।
क्या है इतिहास
सूडान के उत्तरी हिस्से पर कभी तुर्क साम्राज्य का शासन रहा। 18वीं सदी में पूरे सूडान पर मिस्र ने शासन किया। इस वजह से सूडान के उत्तरी हिस्से में बहुसंख्यक मुस्लिम आबादी हो गई और इन्हें 'आधे अरबी' कहा जाता है जबकि दक्षिणी हिस्से में बाद में ईसाई बहुसंख्यक हो गए।
सूडान और दक्षिणी सूडान में भारत के राजदूत रहे दीपक वोहरा कहते हैं कि 19वीं सदी के मध्य में मिस्र के शासक मोहम्मद अली ने अपने लोगों को कहा कि वे मिस्र के दक्षिण (सूडान) में जाएं और वहां से सोना, हाथी दांत और ग़ुलाम लेकर आएं। दीपक वोहरा कहते हैं, "ग़ुलाम को अरबी में 'अब्द' कहा जाता है। सूडान के उत्तरी हिस्से के लोग दक्षिणी हिस्से से ग़ुलाम लेकर आए और तभी से उत्तर और दक्षिण सूडान में संघर्ष शुरू हो गया।"
20वीं सदी में ब्रिटेन ने मिस्र के साथ मिलकर सूडान पर राज किया और यही वह दौर था जब उत्तर और दक्षिण सूडान के बीच विरोध और हिंसा की खाई चौड़ी होती चली गई।
दीपक वोहरा कहते हैं, "ब्रिटेन ने जब सूडान पर राज करना शुरू किया तो उन्होंने वहां देखा कि मिस्र की सीमा से लगे उत्तरी सूडान में विकास हुआ है जबकि दक्षिणी हिस्से में कोई तरक्की नहीं हुई है। तो दक्षिणी हिस्से को उन्होंने 1920 में बंद क्षेत्र घोषित करके चर्च को उसके विकास का ज़िम्मा सौंप दिया। आप जानते हैं कि चर्च में पहली चीज़ क्या होती है। उन्होंने वहां के लोगों को ईसाई बनाना शुरू किया क्योंकि उनके धर्म और परंपराएं स्थानीय थे। इनको विकास की जगह बाइबिल दे दी गई।"
आज़ादी से पहले सूडान में गृह युद्ध
1947 में भारत को आज़ादी के साथ-साथ विभाजन भी मिला जिसमें लाखों लोग मारे गए थे। इसी से सबक लेते हुए ब्रिटेन ने कह दिया कि वह सूडान को बिना बांटे तीन महीने में यहां से चला जाएगा। जनवरी 1956 में सूडान आज़ाद हो गया लेकिन उससे पहले अप्रैल 1955 में उत्तर और दक्षिण में गृह युद्ध शुरू हो गया। 1969 में पहले सैन्य तख़्तापलट के बाद जाफ़र मुहम्मद निमेरी 1969 से 1985 तक देश के राष्ट्रपति रहे। 1986 में सादिक़ अल महदी प्रधानमंत्री बने लेकिन 1989 में ब्रिगेडियर ओमर हसन अल-बशीर ने उनका तख़्तापलट कर दिया और वह अप्रैल 2019 तक देश के राष्ट्रपति रहे।
तेल की खोज ने बदली किस्मत
देश में सत्ता परिवर्तन होते रहे लेकिन उत्तर और दक्षिण के बीच गृह युद्ध ज्यों का त्यों चलता रहा। 1972 में राष्ट्रपति मुहम्मद निमेरी ने 'आदिस अबाबा शांति समझौता' किया लेकिन इसी बीच सूडान में तेल की खोज हो गई जिसके कारण इस समझौते को तोड़ दिया गया।
इस तेल का बड़ा हिस्सा दक्षिणी सूडान में था जिसके कारण दोनों ही क्षेत्र इसको अपना हिस्सा बताते थे। 2005 में एक बार फिर शांति समझौता हुआ और 2011 में इसके तहत जनमत संग्रह हुआ जिसमें 99 फ़ीसदी लोगों ने आज़ादी को चुना।
अल-बशीर उत्तर और दक्षिण को एकसाथ रखने के नारे के साथ सत्ता में आए थे। उन पर दक्षिण सूडान और पश्चिमी सूडान के दारफ़ूर में नरसंहार कराने के आरोप लगे। दारफ़ूर में तक़रीबन तीन लाख लोगों के मारे जाने का अनुमान लगाया जाता है। इसके लिए अंतरराष्ट्रीय आपाराधिक न्यायालय ने अल-बशीर को युद्ध अपराधी घोषित किया हुआ है।
इतने विवादों के बाद भी अल-बशीर ने बड़ी आसानी से दक्षिण सूडान को आज़ाद क्यों कर दिया? इस सवाल पर जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के सेंटर फ़ॉर अफ़्रीकन स्टडीज़ के प्रोफ़ेसर अजय कुमार दुबे कहते हैं कि यह पश्चिमी देशों और ख़ुद की सत्ता जाने के दबाव के कारण हुआ।
प्रोफ़ेसर दुबे कहते हैं, "अल-बशीर पर यह दबाव आया कि अगर वह दक्षिण सूडान को आज़ाद नहीं करते तो देश का बंटवारा होगा और लीबिया की तरह पश्चिमी देश उनका तख़्तापलट भी कर देंगे। नैटो ने अफ़्रीकॉम नामक सैन्य कमांड बनाई हुई है जिसका उद्देश्य अफ़्रीका में अमेरिका और पश्चिमी देशों के हितों की रक्षा करना है। ऐसा वह लीबिया में पहले भी कर चुकी है।"
2011 में दक्षिण सूडान के बंटवारे के आठ साल बाद आख़िरकार अल-बशीर को उनकी ही सेना ने अपदस्थ कर दिया। कहा जाता है कि पश्चिमी देशों के दबाव के कारण ऐसा हुआ है क्योंकि वह पश्चिमी देशों के आगे बिलकुल झुकना नहीं चाहते थे और विपक्षी नेता पश्चिमी देशों के संपर्क में थे।
साथ ही दक्षिण सूडान के अलग हो जाने से पूरे सूडान के 70 फ़ीसदी तेल उद्योग पर पश्चिमी देशों का क़ब्ज़ा हो जाता जैसा अब होता हुआ दिख भी रहा है। हालांकि, प्रोफ़ेसर दुबे मानते हैं कि इसकी दूसरी वजह बिगड़ती अर्थव्यवस्था, विकास और आतंकवाद की समस्या भी है लेकिन सेना उसी रुढ़िवादी इस्लामी रणनीति के तहत शासन कर रही है जिस पर अल-बशीर चलते रहे हैं।
सूडान में सैन्य शासन क्यों रहा
सूडान में अधिकतर समय सैन्य शासन रहा और इसका प्रमुख कारण वहां कई तरह के जनजातीय समूहों का होना भी है। इस कारण यहां कई राजनीतिक पार्टियां बनीं और वह आपस में लड़ती रहीं।
दीपक वोहरा कहते हैं, "सूडान के लोग दुनिया की ओर देख रहे थे कि वहां तरक्की हो रही है लेकिन यहां पर कुछ नहीं हो रहा इसलिए इन्होंने सेना पर भरोसा किया और सेना ने वहां विकास भी किया। ओमर अल-बशीर ने 30 साल देश पर राज किया और उन्होंने इस दौरान तेल उद्योग खड़ा किया। उनके शासन में विकास हुआ लेकिन वह दक्षिण तक कभी नहीं पहुंचा।"
वह कहते हैं, "अफ़्रीका की छवि बनती है कि वहां के लोग भूखे-नंगे रहते हैं लेकिन आप राजधानी खार्तूम जाएंगे तो देखेंगे कि वहां फ्लाईओवर हैं, ऊंची-ऊंची बिल्डिंगें हैं और वहां कोई भूखा नहीं है। पानी की समस्या के कारण दुनिया की सबसे बड़ी सिंचाई योजना सूडान में ही शुरू हुई थी जिसे अल-जज़ीरा कहा जाता है लेकिन यह योजना भी सिर्फ़ उत्तरी सूडान तक ही सीमित रही।"
सेना कब सत्ता छोड़ेगी
अल-बशीर के ख़िलाफ़ सूडान प्रोफ़ेशनल्स एसोसिएशन (एसपीए) के बैनर तले जनता ने प्रदर्शन किए थे। लोकतंत्र के समर्थन में हुए इन प्रदर्शनों के बाद अल-बशीर को हटा दिया गया और ट्रांज़िशनल मिलिट्री काउंसिल की सरकार बनी जिसके तहत रक्षा मंत्री ऑद अहमद इब्न ऑफ़ ने सत्ता संभाली।
अल-बशीर के क़रीब होने के कारण इब्न ऑफ़ को कुछ ही दिनों में पद से हटना पड़ा और तब से लेफ़्टिनेंट जनरल अब्दल फ़तह अल-बुरहान सत्ता संभाले हुए हैं। अल-बुरहान ने वादा किया है कि वह दो साल में चुनाव कराएंगे लेकिन लोग इस पर राज़ी नहीं हैं।
तो सेना कब सत्ता छोड़ेगी इस पर दीपक वोहरा कहते हैं, "सूडान में दो-तीन बार यह हुआ है कि जब वहां के लोग सैन्य शासन से तंग आते हैं तो सौरा (क्रांति) का नारा लगाते हैं। 30 साल तक अल-बशीर ताक़त में रहे और उन्होंने सोचा कि वह इसे नियंत्रित करके रखेंगे लेकिन उन्हीं की सेना के लोगों ने उन्हें हटा दिया। हमने दुनियाभर में देखा है कि एक पार्टी या एक नेता काफ़ी सालों तक राज करने के बाद आसानी से सत्ता नहीं छोड़ते यही सूडान में भी हो रहा है।"
2011 में अरब स्प्रिंग्स के दौरान ट्यूनीशिया और मिस्र जैसे अफ़्रीकी देशों में लोकतंत्र ने करवट ली और अब दुनिया की नज़र सूडान पर है। अफ़्रीकी देशों ने ऐसा तय कर लिया है कि अलोकतांत्रिक बदलाव नहीं होगा।
सूडान में सादिक़ अल-मेहदी के अलावा कोई ऐसा बड़ा विपक्षी नेता नहीं है जिसे अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्ति हो। सादिक की आयु 80 वर्ष से ऊपर है तो इस वक्त सारा दारोमदार युवाओं पर ही टिका है। साथ ही अफ़्रीकी यूनियन और पश्चिम के देशों का दबाव भी सत्ता परिवर्तन के काम आ सकता है। सूडान की सेना अपनी सत्ता कितने दिनों तक बचाकर रख पाएगी और इसके लिए कितना आम लोगों का ख़ून बहेगा यह देखना होगा।