21 साल का एक नौजवान जब दुनिया बदलने का ख़्वाब देख रहा था तभी कुदरत ने अचानक ऐसा झटका दिया कि वो अचानक चलते-चलते लड़खड़ा गया।
शुरुआत में लगा कि कोई मामूली दिक्कत होगी लेकिन डॉक्टरों ने जांच के बाद एक ऐसी बीमारी का नाम बताया जिसने इस युवा वैज्ञानिक के होश उड़ा दिए। ये स्टीफन हॉकिंग की कहानी हैं जिन्हें 21 साल की उम्र में कह दिया गया था कि वो दो-तीन साल ही जी पाएंगे।
साल 1942 में ऑक्सफोर्ड में जन्मे हॉकिंग के पिता रिसर्च बॉयोलॉजिस्ट थे और जर्मनी की बमबारी से बचने के लिए लंदन से वहां जाकर बस गए थे।
कब पता चला बीमारी का? : हॉकिंग का पालन-पोषण लंदन और सेंट अल्बंस में हुआ और ऑक्सफोर्ड से फिजिक्स में फर्स्ट क्लास डिग्री लेने के बाद वो कॉस्मोलॉजी में पोस्टग्रेजुएट रिसर्च करने के लिए कैम्ब्रिज चले गए। साल 1963 में इसी यूनिवर्सिटी में अचानक उन्हें पता चला कि वो मोटर न्यूरॉन बीमारी से पीड़ित हैं।
कॉलेज के दिनों में उन्हें घुड़सवारी और नौका चलाने का शौक़ था लेकिन इस बीमारी ने उनका शरीर का ज़्यादातर हिस्सा लकवे की चपेट में ले लिया। साल 1964 में वो जब जेन से शादी करने की तैयारी कर रहे थे तो डॉक्टरों ने उन्हें दो या ज्यादा से ज़्यादा तीन साल का वक़्त दिया था।
लेकिन हॉकिंग की किस्मत ने साथ दिया और ये बीमारी धीमी रफ़्तार से बढ़ी. लेकिन ये बीमारी क्या थी और शरीर को किस तरह नुकसान पहुंचा सकती है?
बीमारी का नाम क्या? : इस बीमारी का नाम है मोटर न्यूरॉन डिसीज (MND)। एनएचएस के मुताबिक ये एक असाधारण स्थिति है जो दिमाग और तंत्रिका पर असर डालती है। इससे शरीर में कमज़ोरी पैदा होती है जो वक़्त के साथ बढ़ती जाती है।
ये बीमारी हमेशा जानलेवा होती है और जीवनकाल सीमित बना देती है, हालांकि कुछ लोग ज्यादा जीने में कामयाब हो जाते हैं। हॉकिंग के मामले में ऐसा ही हुआ था। इस बीमारी का कोई इलाज मौजूद नहीं है लेकिन ऐसे इलाज मौजूद हैं जो रोजमर्रा के जीवन पर पड़ने वाले इसके असर को सीमित बना सकते हैं।
क्या लक्षण हैं बीमारी के? : इस बीमारी के साथ दिक्कत ये भी कि ये मुमकिन है कि शुरुआत में इसके लक्षण पता ही न चलें और धीरे-धीरे सामने आएं। इसके शुरुआती लक्षण ये हैं:
एड़ी या पैर में कमजोरी महसूस होना। आप लड़खड़ा सकते हैं या फिर सीढ़ियां चढ़ने में दिक्कत हो सकती है।
बोलने में दिक्कत होने लगती है और कुछ तरह का खाना खाने में भी परेशानी होती है
पकड़ कमजोर हो सकती है। हाथ से चीजें गिर सकती हैं। डब्बों का ढक्कन खोलने या बटन लगाने में भी परेशानी हो सकती है।
मांसपेशियों में क्रैम्प आ सकते हैं।
वजन कम होने लगता है। हाथ और पैरों की मांसपेशी वक्त के साथ पतले होने लगते हैं।
रोने और हंसने को काबू करने में दिक्कत होती है।
ये बीमारी किसे हो सकती है? : मोटर न्यूरॉन बीमारी असाधारण स्थिति है जो आम तौर पर 60 और 70 की उम्र में हमला करती है लेकिन ये सभी उम्र के लोगों को हो सकती है।
ये बीमारी दिमाग और तंत्रिका के सेल में परेशानी पैदा होने की वजह से होती है. ये सेल वक़्त के साथ काम करना बंद कर देते हैं। लेकिन ये अब तक पता नहीं चला कि ये कैसे हुआ है।
जिन लोगों को मोटर न्यूरॉन डिसीज या उससे जुड़ी परेशानी फ्रंटोटेम्परल डिमेंशिया होती है, उनसे करीबी संबंध रखने वाले लोगों को भी ये हो सकती है। लेकिन ज्यादातर मामलों में ये परिवार के ज़्यादा सदस्यों को होती नहीं दिखती।
कैसे पता चलता है बीमारी का? : शुरुआती चरणों में इस बीमारी का पता लगाना मुश्किल है। ऐसा कोई एक टेस्ट नहीं है जो इस बीमारी का पता लगा सके और ऐसी कई स्थितियां हैं जिनके चलते इसी तरह के लक्षण हो सकते हैं। यही बीमारी है और दूसरी कोई दिक्कत नहीं है, ये पता लगाने के लिए ये सब कर सकते हैं:
- ब्लड टेस्ट
- दिमाग और रीढ़ की हड्डी का स्कैन
- मांसपेशियों और तंत्रिका में इलेक्ट्रिकल एक्टिविटी को आंकने का टेस्ट
- लम्पर पंक्चर जिसमें रीढ़ की हड्डी में सुई डालकर फ्लूड लिया जाता है
इलाज में क्या किया जा सकता है? : इसमें स्पेशलाइज्ड क्लीनिक या नर्स की जरूरत होती है जो ऑक्यूपेशनल थेरेपी अपनाते हैं ताकि रोजमर्रा के कामकाज करने में कुछ आसानी हो सके।
- फिजियोथेरेपी और दूसरे व्यायाम ताकि ताकत बची रहे
- स्पीच थेरेपी और डाइट का खास ख्याल
- रिलुज़ोल नामक दवाई जो इस बीमारी के बढ़ने की रफ़्तार कम रखती है
- भावनात्मक सहायता
कैसे बढ़ती है ये बीमारी? : मोटन न्यूरॉन बीमारी वक्त के साथ बिगड़ती जाती है। समय के साथ चलने-फिरने, खाना निगलने, सांस लेने में मुश्किल होती जाती है। खाने वाली ट्यूब या मास्क के साथ सांस लेने की जरूरत पड़ती है। ये बीमारी आखिरकार मौत तक ले जाती है लेकिन किसी को अंतिम पड़ाव तक पहुंचने में कितना समय लगता है, ये अलग-अलग हो सकता है।
हॉकिंग ने बीमारी को कैसे छ्काया? : न्यूरॉन मोटर बीमारी को एमीट्रोफ़िक लैटरल स्क्लेरोसिस (ALS) भी कहते हैं। ये डिसऑर्डर किसी को भी हो सकता है। ये पहले मांसपेशियों को कमजोर बनाता है, फिर लकवा आता है और कुछ ही वक्त में बोलने या निगलने की क्षमता जाती रहती है।
इंडिपेंडेंट के मुताबिक ALS एसोसिएशन के मुताबिक इस बीमारी के ग्रस्त मरीजों का औसत जीवनकाल आम तौर पर दो से पांच साल के बीच होता है। बीमारी से जूझने वाले पांच फीसदी से भी कम लोग दो दशक से ज्यादा जी पाते हैं। और हॉकिंग ने ऐसी ही एक रहे।
किंग्स कॉलेज लंदन के प्रोफ़ेसर निगल लेग़ ने कहा था, 'मैं ALS से पीड़ित ऐसे किसी व्यक्ति को नहीं जानता जो इतने साल जिया हो।'
फिर क्या हॉकिंग कैसे अलग हैं? : क्या वो सिर्फ किस्मत के धनी हैं या फिर कोई और बात है? इस सवाल का जवाब कोई साफ तौर पर नहीं दे सकता।
उन्होंने खुद कहा था, 'शायद ALS की जिस किस्म से मैं पीड़ित हूं, उसकी वजह विटामिन का गलत अवशोषण है।' इसके अलावा यहां हॉकिंग की खास व्हीलचेयर और उनकी बोलने में मदद करने वाली मशीन का जिक्र भी करना जरूरी है।
वो ऑटोमैटिक व्हीलचेयर का इस्तेमाल करते थे और वो बोल नहीं पाते थे इसलिए कंप्यूटराइज़्ड वॉइस सिंथेसाइज़र उनके दिमाग की बात सुनकर मशीन के जरिए आवाज़ देते थे।