किरकुक शहर पर इस्लामिक स्टेट के काबिज़ होने के बाद हुई हिंसा और बलात्कार की घटनाओं के बारे में एक इराक़ी महिला ने बीबीसी से अपनी दर्दनाक दास्तां साझा किया:
मैं एक तुर्की शिया हूं और मेरे पति अरब सुन्नी। इस्लामिक स्टेट के आने से पहले हम तिकरित में रह रहे थे। मेरे पति एक प्रतिष्ठित इमाम थे और पड़ोस के ही एक मस्जिद में नमाज़ पढ़ते थे। हमने इससे पहले शिया और सुन्नी के बीच मतभेद के बारे में नहीं जानते थे। वहां इसको लेकर कोई तनाव जैसी चीज़ थी भी नहीं।
हमारी एक सब्जियों की एक छोटी सी दुकान थी। मैं घर में खाना पकाती थी और बगीचे में सब्जियां उगाया करती थी, हमारी आमदनी ठीक ठाक थी। हमारे पास एक बड़ा घर था और हमने बहुत सारे कमरे शिक्षकों को किराये पर दे रखे थे। मेरे दोनों बच्चे, एक लड़की और एक लड़का, उन्हीं के स्कूल में पढ़ते थे और साथ साथ स्कूल जाते थे। जब इस्लामिक स्टेट के चरमपंथी तिकरित में घुसे, तो उन्होंने सबसे पहले कई सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया। ये उनका पहला बड़ा कत्लेआम था, जिसमें 1500 सैनिक मारे गए। इनके शवों को फ़रात नदी में फेंक दिया गया।
जब लड़ाकों को पता चला...
कुछ सैनिक इस क़त्लेआम से बचकर भाग निकले और बीच में पड़ने वाली नदी पार कर हमारे क़स्बे में आ गए। चरमपंथी भी उनके पीछे पीछे यहां आ धमके। इनमें से एक तुर्की से था, जिसने मेरे घर में पनाह ली। वो जानता था कि मैं भी तुर्की से हूं। जब चरमपंथी आए तो मैंने उसे तंदूर में छिपा लिया। ये गर्म था और थोड़ा जल भी गया था लेकिन मुंह से एक शब्द भी नहीं निकाला। मेरे पति ने मस्जिद में बसरा के तीन शिया लोगों को छिपाया था।
ये बात किसी तरह इस्लामिक स्टेट को पता चली कि हमने सैनिकों की मदद की है तो वो रात में क़रीब तीन बजे घर आ पहुंचे। उन्होंने बसरा के सैनिकों को खोज निकाला और वहीं उनकी हत्या कर दी। वो मेरे पति को भी साथ लेते गए और अभी तक मुझे उनकी कोई ख़बर नहीं पता चली है। वो फिर लौटे और हमें घर खाली करने को कहा और उसे उड़ा दिया।
'रेप के दौरान वो पीटते रहे'
जब मैंने घर छोड़ा उस समय मेरे बच्चे, तुर्की की कुछ लड़कियां और शिक्षक साथ साथ वहां से निकले। हम अभी पैदल कुछ दूर तक पहुंचे ही थे कि वो दोबारा लौटे और हमें एक कार मरम्मत करने वाले गैराज में ले गये जहां उस इलाक़े की महिला कैदियों को रखा गया था।
हम वहां कुल 22 महिलाएं और बच्चे थे। चरमपंथी लड़ाकों ने लड़कियों को विवाहित महिलाओं से अलग कर दिया। मेरी आंखों के सामने पांच लड़कियों का बलात्कार हुआ। लड़कियां मदद की गुहार लगाती रहीं। मैंने उन्हें बचाने की कोशिश की, हथियारबंद चरमपंथी से उन्हें छोड़ देने की गुहार लगाई, क़ुरान और ख़ुदा का वास्ता दिया। उनमें से एक ने मुझे ज़ोर से थप्पड़ मारा।
इसके बाद चार आदमियों ने लड़कियों के साथ बलात्कार किया। उन्होंने मेरी 18 साल की सौतेली बेटी का बलात्कार किया, जिसके बाद उसकी मौत हो गयी। बाक़ी लड़कियों की उम्र 20 से 30 साल के बीच थी। बलात्कार के दौरान वे उन्हें पीटते रहे।
लड़कियों के साथ बेरहमी भरा सलूक
इनमें से एक लड़की बहुत ख़ूबसूरत थी। उन्होंने उसका बार बार बलात्कार किया। लड़कियों के शरीर से खून बह रहा था। एक लड़की एक पत्थर पर गिर पड़ी, उसकी हड्डियां टूट गईं और फिर वो मर गई। इस हिंसा और बलात्कार से एक के बाद एक लड़कियों की हालत ख़राब होती गई।
जब मैंने आदमियों को ध्यान से देखना शुरू किया तो मुझे उनमें से दो के चेहरे जाने पहचाने लगे। वे हमारे गांव के पड़ोसी कस्बे के सुन्नी अरब थे। उन्होंने हमें बिना खाना पानी दिए गैराज में बंद छोड़ दिया। मेरा वज़न बहुत कम हो गया था। इसी दौरान मुझे एक बिच्छू ने भी काट लिया था।
जैसे जैसे दिन बीत रहा था, हमारी हालत ख़राब होती जा रही थी। हम आपस में बात करने लगीं कि जो बचेगा वो दूसरे के बच्चों की भी देखभाल करेगा। हमने गैराज में कुल 21 दिन बताए, उसके बाद हथियारबंद चरमपंथी एक बुज़ुर्ग व्यक्ति को हमारे पास छोड़ गए।
उस व्यक्ति ने हमारे साथ अच्छा सलूक किया और हमें खाना पानी दिया।
रेगिस्तान के रास्ते पहुंचे किरकुक
एक दिन वो एक बकरी लेकर आया और हमारे बच्चों को दूध दिया। ये दूध बहुत मीठा और स्वादिष्ट था। बच्चों को लगा कि इसमें शक्कर भी मिलाई गई थी। एक दिन चरमपंथी लड़ाके फिर लौटे और हमें दो समूहों में बांट दिया और एक समूह को अपने साथ लेते गए। मैं और शिक्षिका अपने बच्चों के साथ रह गई थी।
उस बुज़ुर्ग आदमी ने हमसे कहा, "वो लौट कर आएंगे और आपको अपने साथ ले जाएंगे, इसलिए यहां से निकल जाना चाहिए।"
उन्होंने हमें एक सड़क तक पहुंचाया और फिर लौट गए। गैराज में रहते हुए मैं प्रार्थना करती थी, मुझे लगता है कि ईश्वर ने ही इस आदमी को हमारे पास भेजा था।
बाद में मुझे पता चला कि उन्होंने इस बुज़ुर्ग आदमी को मार डाला क्योंकि उसने हमें वहां से निकल भागने में मदद की थी। वो बहुत अच्छा आदमी था। हमने रेगिस्तान में चलना शुरू किया। मौसम बहुत ख़राब था, रास्ते कीचड़ भरे थे और हमारे पास कपड़े बिल्कुल नहीं थे। हम बारिश में भीगते रहे। हमारे पास खाना नहीं था, इसलिए हमने घास खाया। इस रास्ते में उस शिक्षिका का छोटा बच्चा मर गया। लेकिन हम पांच दिन बाद किरकुक पहुंच गए। मैं वहां अपनी एक रिश्तेदार के यहां रहने चली गई।
मदद करने वाले बुज़ुर्ग को भी मार डाला
लेकिन जो लड़की हमारे साथ पहुंची थी उसके परिजनों से उसे इज़्ज़त के नाम पर स्वीकार नहीं किया। अभी उसका ईरान में मनोचिकित्सकीय इलाज चल रहा है। मेरे पति का कोई पता नहीं चला। मैंने बहुत कोशिश की, अपनी सौतेली बेटी और निकल भागने में मदद करने वाले बुज़ुर्ग के निशान पाने के लिए कई कब्रिस्तान के ख़ाक छाने लेकिन पता नहीं चल पाया।
यहां हर तरफ़ पीड़ितों के परिवार मिल जाएंगे और हर किसी के दुख का कोई अंत नहीं। मेरे बच्चे अभी भी दुखी रहते हैं। मेरा बच्चे तबसे चुप चुप सा है, जबसे उसने ये सब देखा है। मैं चाहती हूं कि अपने कस्बे में लौट जाऊं और वहीं फिर से बस जाऊं लेकिन मैं ऐसा नहीं कर सकती। मैं अब बूढ़ी हो चली हूं और मुझे अपना इंतज़ाम ख़ुद करना पड़ता है।
हमें इस्लामिक स्टेट के हाथों बहुत भयानक बर्बरता का शिकार होना पड़ा। हमें बहुत कुछ खोना और सहना पड़ा। मैं समझती हूं कि इस बात की वही कल्पना कर सकते हैं जो इस तरह के बर्बर सुलूक से गुजर चुके हैं। अब मैं केवल अपने बच्चों के लिए ज़िंदा हूं।