रेज़ांग ला जहां 124 में से 113 भारतीय सैनिकों ने दी अपने प्राणों की आहुति: विवेचना

Webdunia
शनिवार, 9 मार्च 2019 (18:57 IST)
- रेहान फ़ज़ल
 
बात फ़रवरी 1963 की है। चीन से लड़ाई ख़त्म होने के तीन महीने बाद एक लद्दाख़ी गड़ेरिया भटकता हुआ चुशूल से रेज़ाग ला जा पहुंचा। एकदम से उसकी निगाह तबाह हुए बंकरों और इस्तेमाल की गई गोलियों के खोलों पर पड़ी। वो और पास गया तो उसने देखा कि वहाँ चारों तरफ़ लाशें ही लाशें पड़ी थीं...वर्दी वाले सैनिकों की लाशें।
 
 
जानीमानी सैनिक इतिहासकार और भारतीय सेना के परमवीर चक्र विजेताओं पर मशहूर किताब 'द ब्रेव' लिखने वाली रचना बिष्ट रावत बताती हैं, 'वो गड़ेरिया भागता हुआ नीचे आया और उसने भारतीय सेना की एक चौकी पर इसकी सूचना दी। जब सैनिक वहाँ पहुंचे तो उन्होंने देखा कि हर मृत भारतीय सैनिक के शरीर पर गोलियों के कई-कई ज़ख्म थे। कई अभी भी अपनी राइफ़लें थामे हुए थे। नर्सिंग असिस्टेंट के हाथ में सिरिंज और पट्टी का गोला था।"
 
 
उन्होंने कहा, "किसी की राइफ़ल टूट कर उड़ चुकी थी, लेकिन उसका बट उसके हाथों में ही था। हुआ ये था कि लड़ाई ख़त्म होने के बाद वहाँ भारी हिमपात हो गया और उस इलाके को 'नो मैन्स लैंड' घोषित कर दिया गया। इसलिए वहाँ कोई जा नहीं पाया।"
 
 
रचना बिष्ट कहती हैं, "लोगों को इनके बारे में पता ही नहीं था कि इन 113 लोगों के साथ हुआ क्या था। लोगों को यहाँ तक अंदेशा था कि वो युद्धबंदी बन गए हैं। तब तक इनके नाम के आगे एक तरह का बट्टा लग गया था। उनको कायर करार कर दिया गया था। उनके बारे में मशहूर हो गया था कि वो डर कर लड़ाई से भाग गए थे।"
 
 
वो कहती हैं, "दो तीन लोग जो बच कर आए उनका लोगों ने हुक्का-पानी बंद कर दिया था। यहाँ तक कि उनके बच्चों को स्कूलों से निकाल दिया गया। एक एनजीओ को बहुत बड़ा अभियान चलाना पड़ा कि वास्तव में ये लोग हीरो थे, कायर नहीं थे।"
 
कभी नहीं देखी थी बर्फ़
1962 में 13 कुमाऊँ को चुशूल हवाईपट्टी की रक्षा के लिए भेजा गया था। उसके अधिकतर जवान हरियाणा से थे जिन्होंने अपनी ज़िंदगी में कभी बर्फ़ गिरते देखी ही नहीं थी। उन्हें दो दिन के नोटिस पर जम्मू कश्मीर के बारामूला से वहाँ लाया गया था। उन्हें ऊँचाई और सर्दी में ढ़लने का मौका ही नहीं मिल पाया था। उनके पास शून्य से कई डिग्री कम तापमान की सर्दी के लिए न तो ढ़ंग के कपड़े थे और न जूते। उन्हें पहनने के लिए जर्सियाँ, सूती पतलूनें और हल्के कोट दिए गए थे।
 
 
मेजर शैतान सिंह ने अपने जवानों को पहाड़ी के सामने की ढलान पर तैनात कर दिया था। 18 नवंबर, 1962 को रविवार का दिन था। ठंड रोज़ की बनिस्बत कुछ ज़्यादा पड़ रही थी और रेज़ांग ला में बर्फ़ भी गिर रही थी।
 
 
उस लड़ाई में ज़िंदा बच निकलने वाले ऑनरेरी कैप्टेन सूबेदार राम चंद्र यादव जो आजकल रेवाड़ी में रहते हैं, याद करते हैं, "तड़के साढ़े तीन बजे अचानक एक लंबा बर्स्ट आया ड-ड-ड-ड-ड। पूरा पहाड़ी इलाका उसके शोर से गूंज गया। मैंने मेजर शैतान सिंह को बताया कि 8 प्लाटून के सामने से फ़ायर आया है। चार मिनट बाद हरि राम का फ़ोन आया कि 8-10 चीनी सिपाही हमारी तरफ़ बढ़ रहे थे।"
 
 
वो कहते हैं, "जैसे ही वो हमारी रेंज में आए, हमारे जवानों ने लंबा बर्स्ट फ़ायर किया है। उस में चार-पांच चीनी तो उसी समय ख़त्म हो गए और बाकी वापस भाग गए। इसके बाद मैंने अपनी लाइट मशीन गन को मोर्चे के अंदर वापस बुला लिया है। ये सुन कर मेजर साहब ने कहा कि जिस समय का हमें इंतेज़ार था, वो आ पहुंचा है। हरि राम ने कहा आप चिंता मत करिए। हम सब जवान तैयार हैं। हमने मोर्चा पकड़ लिया है।"
 
 
चारों तरफ़ से चीनी हमला
7 पलटन के जमादार सुरजा राम ने अपने कंपनी कमांडर को इत्तला दी कि चीन के क़रीब 400 सैनिक उनकी पोस्ट की तरफ़ बढ़ रहे हैं। तभी 8 पलटन ने भी रिपोर्ट किया कि रिज की तरफ़ से करीब 800 चीनी सैनिक भी उनकी तरफ़ बढ़ रहे हैं।
 
मेजर शैतान सिंह ने आदेश दिया कि जैसे ही चीनी उन की फ़ायरिंग रेंज में आएं, उन पर फ़ायरिंग शुरू कर दी जाए। सूबेदार राम चंद्र यादव बताते हैं, "जब चीनी 300 गज़ की रेंज में आए तो हमने उन पर फ़ायर खोल दिया। क़रीब 10 मिनट तक भारी फ़ायरिंग होती रही। मेजर शैतान सिंह बार बार बाहर निकल जाते थे। मैं उन्हें आगाह कर रहा था कि बाहर मत जाइए क्योंकि कोई भरोसा नहीं कि चीनियों की कब 'शेलिंग' आ जाए।"
 
 
वो कहते हैं, "सुरजा राम ने रेडियो पर बताया कि हमने चीनियों को वापस भगा दिया है। हमारे सारे जवान सुरक्षित हैं। उन्हें कोई चोट नहीं लगी है। हम ऊँचाई पर थे और चीनी नीचे से आ रहे थे। ये बात हो ही रही थी कि चीनियों का पहला गोला हमारे बंकर पर आ कर गिरा। मेजर शैतान सिंह ने फ़ौरन फ़ायरिंग रुकवा दी। फिर उन्होंने 3 इंच मोर्टार चलाने वालों को कोडवर्ड में आदेश दिया 'टारगेट तोता।' हमारे मोर्टार के गोलों से चीनी घबरा गए और ये हमला भी नाकाम हो गया।"
 
 
भारतीय सैनिकों के पास सिर्फ़ लाइट मशीन गन और .303 राइफ़लें
जब चीनियों द्वारा सामने से किए गए सारे हमले नाकामयाब हो गए तो उन्होंने अपनी योजना बदल डाली। सुबह साढ़े चार बजे उन्होंने सभी चौकियों पर एक साथ गोले बरसाने शुरू कर दिए। 15 मिनट में सब कुछ ख़त्म हो गया। हर तरफ़ मौत और तबाही का मंज़र था।
 
रचना बिष्ट रावत बताती हैं, "पहला हमला उन्होंने नाकामयाब कर दिया था। ढलान के इधर-उधर चीनियों की लाशें पड़ी हुई थीं जो उन्हें ऊपर से दिखाई दे रही थीं। लेकिन फिर चीनियों ने मोर्टर फ़ायरिंग शुरू कर दी। ये हमला 15 मिनट तक चला होगा।"
 
 
वो कहती हैं, "भारतीय जवानों के पास सिर्फ़ लाइट मशीन गन्स और .303 की राइफ़ले थीं जो कि 'सिंगिल लोड' थी। यानी हर गोली चलाने के बाद उन्हें फिर से 'लोड' करना पड़ता था। इतनी सर्दी थी कि जवानों की उंगलियाँ जम गई थीं।"
 
 
उन्होंने बताया, "15 मिनट के अंदर चीनियों ने भारतीय बंकरों में बरबादी फैला दी। उनके बंकर उजड़ गए। तंबुओं में आग लग गईं और जवानों के शरीरों के अंग कट कर इधर उधर जा गिरे। मगर इसके बाद भी मेजर शैतान सिंह अपने जवानों का हौसला बढ़ाते रहे। जब धुँआ छंटा तो जवानों ने देखा कि 'रिज' के ऊपर हथियारों से लदे याक और घोड़े चले आ रहे हैं। कुछ क्षणों के लिए जवानों ने सोचा कि उन्हीं की अल्फ़ा कंपनी उनके बचाव के लिए आ रही है। वो बहुत खुश हुए पर जब उन्होंने दूरबीन लगा कर ग़ौर से देखा तो वो चीनी सैनिक निकले। तब चीनियों का तीसरा हमला शुरू हुआ और उन्होंने आ कर एक-एक सैनिक को मार दिया।"
 
 
मेजर शैतान सिंह की आंतें बाहर आईं
इस बीच मेजर शैतान सिंह की बाँह में 'शेल' का एक टुकड़ा आ कर लगा। उन्होंने पट्टी करवा कर अपने सैनिकों का नेतृत्व करना जारी रखा। वो 'रिज' पर थे तभी उनके पेट पर एक पूरा 'बर्स्ट' लगा। हरफूल ने लाइट मशीन गन से चीन के उस सैनिक पर फ़ायर किया जिसने शैतान सिंह पर गोली चलाई थी।
 
 
हरफूल को भी गोली लगी और उन्होंने गिरते हुए रामचंद्र से कहा कि मेजर साब को दुश्मन के हाथों मत लगने देना। मेजर शैतान सिंह अत्यधिक ख़ून बह जाने के कारण बार बार बेहोशी की हालत में चले जा रहे थे। सूबेदार राम चंद्र यादव इस मुश्किल समय में उनके साथ थे और उन चंद लोगों में से एक हैं जिन्होंने उन्हें ज़िदा देखा था।
 
 
यादव याद करते हैं, "मेजर साब ने मुझसे कहा रामचंद्र मेरे पेट में बहुत दर्द हो रहा है। मेरी बेल्ट खोल दो। मैंने उनकी कमीज़ में हाथ डाला। उनकी सारी आंतें बाहर आ गई थीं। मैंने उनकी बेल्ट नहीं खोली, क्योंकि अगर मैं ऐसा करता तो सब कुछ बाहर आ जाता। इस बीच लगातार फ़ायरिंग हो रही थी। बेहोश हो गए मेजर शैतान सिंह को फिर होश आया।"
 
 
यादव कहते हैं, "उन्होंने टूटती सांसों से कहा मेरा एक कहना मान लो। तुम बटालियन में चले जाओ और सब को बताओ कि कंपनी इस तरह लड़ी है। मैं यहीं मरना चाहता हूँ। ठीक सवा आठ बजे मेजर साब के प्राण निकले।"
 

वो याद करते हैं, "इस बीच मैंने देखा कि चीनी सैनिक हमारे बंकरों में घुस रहे हैं और 13 कुमाऊँ के सैनिकों और चीनियों के बीच हाथों से लड़ाई हो रही है। हमारे एक साथी सिग्राम ने गोलियाँ ख़त्म हो जाने के बाद चीनियों को एक दूसरे के सिर लड़ा कर मारा। एक चीनी को उसने पैर पकड़ कर चट्टान पर दे मारा। इसके बाद 7 प्लाटून का एक सिपाही भी ज़िंदा नहीं बचा और न ही कैद हुआ।"
मेजर शैतान सिंह को एक पत्थर के सहारे लिटाया
चारों तरफ़ लाशें ऐसे बिखरी पड़ी थीं जैसे वो कपड़े की गुडियाएं हों। मेजर शैतान सिंह का टेंट बुरी तरह से तहसनहस हो चुका था। उनके दोस्त चिमन का सिर धड़ से अलग पड़ा था।
 
 
मंडोला गाँव के महेंदर सिंह की टांगें बुरी तरह से कुचली जा चुकी थीं। मैने सूबेदार यादव से पूछा कि इस लड़ाई में 13 कुमाऊँ के 124 में से 113 जवान मारे गए। आप किस तरह इस भयानक हमले में बच पाए?
 
 
यादव ने बताया, "मैं मामूली ज़ख़्मी था और पूरी तरह से होश में था। लेकिन मेरे दिमाग़ में हरफूल की वो बात दौड़ रही थी कि मेजर साब की लाश चीनियों के हाथ नहीं पड़नी चाहिए। मैंने उनको ज़ोर से अपनी बाहों में लिया और उनके साथ एक खड्ड में लुढ़क गया। फिर मैं उन्हें अपनी पीठ पर लाद कर क़रीब 800 मीटर तक चला। फिर एक बड़े पत्थर के पास मैंने मेजर शैतान सिंह को लिटा दिया। ठीक सवा आठ बजे मेजर साब के प्राण निकले।"
 
 
वो कहते हैं, "मैंने उनके दस्ताने वहीं छोड़ दिए और उन के ऊपर बर्फ़ डाल दी, ताकि चीनी उन्हें देख नहीं पाएं। मैं नीचे क्वार्टर मास्टर के पास ये सोच कर आया कि कुछ लोगों को साथ ला कर मेजर साब की लाश ले जाउंगा। लेकिन जब मैं नीचे आया तो वहाँ हर जगह आग लगी हुई थी। हमारे ही लोगों ने उसे जला दिया था। उन्हें आदेश मिला था कि सब कुछ नष्ट करके चुशूल में बटालियन हेडक्वार्टर लौट आएं। तभी मुझे एक जीप आती दिखाई दी। मैं उस पर बैठा और वो जीप मुझे ले कर नीचे हेडक्वार्टर ले आई।"
 
 
सिर्फ़ नाम के ही शैतान
मेजर शैतान सिंह का जन्म 1 दिसंबर, 1924 को जोधपुर ज़िले के बनासर गाँव में हुआ था। उनका नाम भले ही शैतान सिंह हो, लेकिन उनके साथी बताते हैं कि वो भारतीय सेना के सबसे नेक इंसानों में से एक थे।
 
 
रचना बिष्ट रावत बताती हैं, "मेजर शैतान सिंह भी एक फ़ौजी परिवार से थे। उनके पिता एक सैनिक अधिकारी थे। उन्हें ओबीई मिला हुआ था। वो बहुत शरीफ़ आदमी थे। आमतौर से योद्धाओं की छवि होती है कि वो बहुत ख़ूंखार होते हैं। लेकिन उनके साथ ऐसा कुछ नहीं था।"
 
 
वो बताती हैं, "वो अपने जवानों के साथ रहने में यकीन करते थे। जब वो ख़ाली होते तो साथ मिल कर ऑल इंडिया रेडियो पर ख़बरें सुना करते थे। हर जगह चीन से हार की ख़बरें आ रही थी। सुन कर उनका ख़ून खौल जाता था। वो मेजर शैतान सिंह से कहा करते थे, 'साहब जब हमें मौका मिलेगा तो हम जम कर लड़ेंगे।' मेजर मुस्करा देते थे। लेकिन जब लड़ाई का मौका आया तो उनके नेतृत्व की वजह से ही एक भी जवान ने चीनियों को अपनी पीठ नहीं दिखाई।"
 
 
आख़िरी जवान और आखिरी गोली तक लड़ाई
रेज़ांग ला की लड़ाई को भारतीय सैन्य इतिहास की सबसे बड़ी लड़ाइयों में से एक माना जाता है, जब एक इलाके का रक्षण करते हुए लगभग सभी जवानों ने अपने प्राणों की आहुति दे दी थी।
 
 
रचना बिष्ट रावत बताती हैं, "रेज़ांग ला की लड़ाई इसलिए बड़ी लड़ाई थी क्योंकि 13 कुमाऊँ के जवानों को जो आदेश मिले थे, उन्होंने उसे आख़िरी दम तक पूरा किया। उनको उनके ब्रिगेडियर टीएन रैना (जो बाद में थलसेनाध्यक्ष बने) ने लिखित आदेश दिया था कि उन्हें आख़िरी जवान और आख़िरी गोली तक लड़ते रहना है। उन्होंने इस आदेश का अक्षरश: पालन किया। "
 
 
वो कहती हैं, "सिर्फ़ 124 जवान वहाँ तैनात थे। क़रीब एक हज़ार की संख्या में चीनियों ने उन पर हमला किया था। 114 जवान वहाँ मारे गए। पांच को युद्धबंदी बना लिया गया। उनमें से एक की मौत हिरासत में हुई। जब मैं इस विषय पर शोध कर रही थी तो मैंने 13 कुमाऊँ से उस लड़ाई में मरने वाले सैनिकों के नाम मांगे, तो उन से मेरे लैप-टॉप की तीन शीट्स भर गईं। ये सोच कर मेरी आँखें भर आईं कि कितने लोगों ने इस लड़ाई में अपनी ज़िंदगी की शहादत दी थी। ये लड़ाई सुबह साढ़े तीन बजे शुरू हुई थी और सवा आठ बजे ख़त्म हो गई थी पर मुख्य लड़ाई आख़िरी घंटे में ही हुई थी।"
 
 
मेजर शैतान सिंह को परमवीर चक्र
रेज़ांग ला में लड़ने वाली सी कंपनी का हर जवान हीरो था। अदम्य साहस दिखाने के लिए मेजर शैतान सिंह को मरणोपरांत भारत के सर्वोच्च वीरता पुरस्कार परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया।
 
 
सूबेदार रामचंद्र यादव कहते हैं, "अगर ये चार्ली कंपनी शहीद नहीं हुई होती तो लेह, करगिल, जम्मू कश्मीर सब ख़तरे में पड़ जाते। इसी ने रोका चीनियों को। जब उनका इतना नुकसान हो गया तो उसने खुद युद्ध-विराम किया। हमने युद्ध-विराम नहीं करवाया था।"
 
 
यादव कहते हैं, "अब मैं आपको बताता हूँ कि लड़ाई से चार दिन पहले हमारे पास संदेश आया कि तुम पीछे हट जाओ। मेजर शैतान सिंह ने कहा कि मैं इसका पालन तभी कर पाउंगा, जब मैं अपने जवानों से बात कर लूँ। उन्होंने मेरी राय पूछी। मैंने कहा 'साब जवान मर जाएगा, लेकिन इस पोस्ट को छोड़ेगा नहीं।' फिर मेजर साब हर प्लाटून में गए। वो जहाँ भी गए, वहाँ जवाब मिला कि हम मर जाएंगे और दुश्मन को इसी जगह खा जाएंगे, लेकिन दूसरी जगह नहीं जाएंगे।"
 
 
यादव कहते हैं, "तीनों प्लाटूनों की सहमति मिलने के बाद मेजर शैतान सिंह ने कहा कि मेरा भी यही इरादा है। उन्होंने ब्रिगेडियर टीएन रैना को संदेश भेज दिया कि ये कंपनी इस जगह से पीछे नहीं हटेगी।"
 
 
लड़ाई ख़त्म होने के तीन महीने बाद मेजर शैतान सिंह के पार्थिव शरीर को जोधपुर में राजकीय सम्मान के साथ अंतिम संस्कार किया गया। बाकी सैनिकों की सामूहिक चिताएं, रेज़ांग ला में बटालियन हेडक्वार्टर के सामने जलाई गईं। उनकी याद में स्मारक अब भी वहाँ खड़ा है।
 
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