राहुल गांधी ने जो कर्नाटक में किया वो 2019 में करेंगे?

Webdunia
बुधवार, 23 मई 2018 (10:21 IST)
- अमरेश द्विवेदी 
 
कर्नाटक में जो देखने को मिला कांग्रेस के लिए ये नई बात थी। कांग्रेस दूसरे नंबर की पार्टी थी, जेडीएस के सहयोग से सरकार बना सकती थी, लेकिन उसने मुख्यमंत्री पद का मोह छोड़कर जेडीएस के कुमारस्वामी की सरकार बनवा दी क्योंकि लक्ष्य बीजेपी को सत्ता से दूर रखना था।

ऐसा ही एक लक्ष्य और दृश्य 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद भी देखने को मिल सकता है जब कांग्रेस विपक्ष की बड़ी ताक़त हो और उसे ममता बनर्जी, मायावती, चंद्रबाबू नायडू या फिर किसी और क्षेत्रीय नेता को प्रधानमंत्री बनाना पड़े और ख़ुद के लिए पीएम पद का मोह छोड़ना पड़े।
 
 
कर्नाटक के प्रयोग के सूत्रधार बने कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी। लेकिन क्या 2019 में भी राहुल कुछ ऐसा ही करने का मन बना रहे हैं क्योंकि किसी भी क़ीमत पर बीजेपी को सत्ता से बाहर करने को उन्होंने राजनीतिक उद्देश्य बना लिया है। फिर राहुल ने हाल ही में जो प्रधानमंत्री बनने की बात बेंगलुरु में कही थी, उसका क्या होगा, चलिए पड़ताल करते हैं राहुल और कांग्रेस के 'कल, आज और कल' और उनके सियासी सपने की।
 
 
राहुल का सियासी 'आरंभ'
साल 2013 में राहुल गांधी जब कांग्रेस के उपाध्यक्ष बने थे तो बेहद भावुक भाषण में उन्होंने अपनी मां और तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की सलाह का ज़िक्र किया था जिसमें सोनिया ने कहा था- 'सत्ता ज़हरीली होती है।' इसी 'ज़हरीली सत्ता' के बीच अपनी सियासी हैसियत की तलाश और भविष्य के सपने बुन रहे हैं कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी।
 
 
ये उसी कांग्रेस के अध्यक्ष हैं जिसका 130 साल से ज़्यादा का इतिहास है, जिसने 1947 में मिली आज़ादी के बाद अधिकांश समय में भारत पर राज किया है और हर वो हथकंडे अपनाती रही है जिसके लिए आज वो केंद्र की सत्ता पर बैठी बीजेपी और नरेंद्र मोदी की आलोचना करती है।
 
 
लेकिन जो कांग्रेस नेहरू की थी, जो इंदिरा की थी, जो राजीव गांधी की थी और अपने गठबंधन के स्वरूप के साथ जो सोनिया की थी वो आज नहीं है, ये बात राहुल गांधी समझ गए हैं और शायद इसीलिए उन्होंने कर्नाटक में 78 सीटें लेकर भी बीजेपी को सत्ता से बाहर रखने के लिए 37 सीटों वाली जनता दल सेक्युलर को सीएम की कुर्सी सौंप दी और कांग्रेस को किंगमेकर की भूमिका में ला खड़ा किया।
 
 
वरिष्ठ पत्रकार और कांग्रेस मुख्यालय का इतिहास और सोनिया गांधी की जीवनी लिखने वाले रशीद किदवई कहते हैं, "कांग्रेस की जो कमज़ोरी है उसे राहुल गांधी बख़ूबी समझ गए हैं कि कांग्रेस अपने बूते पर भाजपा को टक्कर नहीं दे पाएगी। ये राजनीतिक आकलन मददगार साबित हुआ कर्नाटक में सरकार के गठन में।"
 
 
"कहने को तो राहुल गांधी ने ये भी कहा है कि 2019 में अगर कांग्रेस सबसे बड़े राजनीतिक दल के तौर पर आई तो वो प्रधानमंत्री पद के दावेदार होंगे। लेकिन ये बात उन्होंने कांग्रेस जन को उत्साहित करने के लिए कही है। आज सभी लोग जानते हैं कि 2019 में भाजपा के सामने कांग्रेस का सबसे बड़ी पार्टी होना बहुत मुश्किल है।"
 
 
कांग्रेस की हक़ीक़त
राजनीति पर बारीक नज़र रखने वाले मानते हैं कि सोनिया गांधी की तरह राहुल गांधी भी प्रधानमंत्री पद पाने के लिए उतने उत्सुक नहीं है जितने क्षेत्रीय दल के नेता हैं। ऐसे में जब 2019 के आम चुनाव होंगे और भाजपा को अगर स्पष्ट बहुमत नहीं मिलता है तो राहुल गांधी एक सक्रिय भूमिका में नज़र आएंगे।
 
 
यानी ऐसा संभव है कि मायावती और ममता जैसा कोई क्षेत्रीय क्षत्रप (जिनके पास पर्याप्त सीटें हों) प्रधानमंत्री पद का दावेदार बन जाए और राहुल उनका समर्थन करते नज़र आएं। पहले कांग्रेस को ये लगता था कि एक ऐतिहासिक दल होने के नाते उसकी ऐतिहासिक भूमिका है और वो गठबंधन के ख़िलाफ़ रहती थी। समय बदला। परिदृश्य बदला।
 
 
कांग्रेस का राजनीतिक वर्चस्व वैसा नहीं रहा जैसा राजीव गांधी के पहले तक हुआ करता था। ऐसे में पार्टी ने समझा कि गठबंधन कोई बुरी चीज़ नहीं है। यदि सत्ता में रहना है तो गठबंधन की सरकार बनानी ही होगी, हालांकि नेतृत्व कांग्रेस के पास रहेगा।
 
गठबंधन धर्म
और अब एक और ऐसा समय आया है जब कांग्रेस को फिर से अपनी भूमिका दोबारा तय करनी होगी। जैसा कि कर्नाटक में देखने को मिला। बीजेपी को सत्ता से बाहर करने के लिए कांग्रेस ने केवल 38 सीटों वाली जेडीएस के नेतृत्व में सरकार बनवाना स्वीकार किया और ख़ुद सहयोगी की भूमिका में आ गई।
 
 
भारतीय राजनीति के शीर्ष पर रही इस ऐतिहासिक पार्टी के लिए बदलते समय के अनुसार ख़ुद की भूमिका को नया रंगरूप देना पड़ा। यानी वो गठबंधन धर्म का निर्वाह करते हुए सत्ता में तो है, लेकिन नेतृत्व उसके पास नहीं वो केवल 'राजा' बनाने की भूमिका में है।
 
रशीद किदवई कहते हैं, "ये कांग्रेस के नए नेता राहुल गांधी की सोच का नतीजा है जो समय के अनुकूल नज़र आता है। समय की मजबूरी कहें या फिर राजनीतिक हालात का दबाव, राहुल गांधी को ये समझौता करना पड़ रहा है और इसमें कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं और रणनीतिकारों की सहमति भी नज़र आती है।"
 
 
आगे की राह
अब एक क़दम और आगे बढ़ते हैं। कर्नाटक के हालात में राहुल गांधी ने बीजेपी को सत्ता से दूर रखने के लिए जेडीएस के कुमारस्वामी का मुख्यमंत्री बनना स्वीकार कर लिया और कांग्रेस बड़ी पार्टी होते हुए भी सत्ता के गणित में सहायक की भूमिका में आ गई। आने वाले समय में राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के चुनाव होने हैं जहां बीजेपी की सरकारें हैं और फिर 2019 में लोकसभा का चुनाव होना है।
 
 
राजनीतिक विश्लेषक अब ये अनुमान लगाने की कोशिश कर रहे हैं कि राहुल गांधी ने कर्नाटक में जो किया है क्या वो लोकसभा चुनाव में भी करेंगे। यानी क्या कांग्रेस पहले ही ये कह सकने की स्थिति में होगी की राहुल गांधी चुनाव के नतीजे पूरी तरह आ जाने तक विपक्ष की तरफ़ से प्रधानमंत्री पद के दावेदार नहीं। चुनाव परिणाम जैसे आएंगे उसे देखते हुए ही आगे की रणनीति यानी प्रधानमंत्री के दावेदारों पर चर्चा आगे बढ़ाई जाएगी।

 
प्रधानमंत्री पद के दावेदार नहीं...
रशीद किदवई कहते हैं, "कांग्रेस एक राष्ट्रीय दल है और अकेली ऐसी पार्टी है जो भाजपा को चुनौती देने की स्थिति में है। अगर उस राष्ट्रीय दल का सर्वोच्च नेता ये कह दे कि वो प्रधानमंत्री पद की दौड़ में नहीं है क्योंकि चुनौती बीजेपी को सत्ता से हटाने की है और वो उद्देश्य ज्यादा महत्वपूर्ण और बड़ा है तो इसका पार्टी कार्यकर्ताओं में अच्छा संदेश नहीं जाएगा, वो बिल्कुल हताश हो जाएगा।"
 
 
"इसीलिए राहुल गांधी बिल्कुल स्पष्ट तौर पर ये कहने की स्थिति में नहीं हैं कि वो 2019 में प्रधानमंत्री पद के दावेदार नहीं हैं। साथ ही ये भी महत्वपूर्ण है कि जो क्षेत्रीय दल हैं जिनके बूते कांग्रेस बीजेपी को सत्ता से बेदखल करने की रणनीति पर काम कर रही है उनके मन में ये लगभग साफ़ है कि 2019 में राहुल गांधी प्रधानमंत्री पद के दावेदार नहीं है। हां ये ज़रूर है कि वो इस बात को खुलकर कहेंगे नहीं जब तक कि 2019 चुनाव के नतीजे सामने नहीं आ जाते।"

2014 के चुनाव में कांग्रेस को 44 सीटें आई थीं
फ़र्ज़ करें कि तमाम राज्यों में क्षेत्रीय दलों से गठबंधन के ज़रिए कांग्रेस 80-90 सीटें जीतकर विपक्षी मोर्चे में सबसे बड़े दल के रूप में उभरती है तो उस वक्त भी क्या वो वैसी ही भूमिका में रहना स्वीकर करेगी जैसी कर्नाटक में उसने निभाई है? कम से कम क्षेत्रीय दल तो ऐसा ही चाहेंगे। लेकिन अगर कांग्रेस को अपने बूते पर 100 का आंकड़ा पार कर गई तो हालात बदल सकते है लेकिन इस बारे में अभी से कोई भविष्य़वाणी करना ठीक नहीं होगा।
 
 
राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीगढ़ 'लिटमस टेस्ट'
2019 के आम चुनाव से पहले तीन बड़े राज्यों के विधानसभा चुनाव होने हैं - राजस्थान (विधानसभा-200, लोकसभा-25), मध्य प्रदेश (विधानसभा-231, लोकसभा-29), छत्तीसगढ़ (विधानसभा-91, लोकसभा-11)। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में 15 सालों से बीजेपी की सरकार है।
 
कुछ विश्लेषक ये राय ज़ाहिर करते हैं कि इतने लंबे अरसे से सत्ता में रहने की वजह से सत्ता विरोधी लहर हो सकती है जिसका फ़ायदा कांग्रेस को मिल सकता है। 2019 के चुनाव के मद्देनज़र विभिन्न राज्यों के विपक्षी दलों की नज़र भी इन राज्यों के चुनाव नतीजों पर रहेगी।
 
 
इन तीनों राज्यों में भाजपा और कांग्रेस के बीच सीधा मुक़ाबला है, अगर राहुल गांधी कम-से-कम दो राज्यों में सत्ता छीन पाते हैं तो विपक्षी गठबंधन का नायक होने की पात्रता हासिल कर सकते हैं वरना शरद पवार और ममता बैनर्जी जैसे बड़े नेता उनके नेतृत्व में 2019 का चुनाव लड़ने में झिझकेंगे।
 
रशीद किदवई कहते हैं कि अगर इन तीन राज्यों में कांग्रेस ने अच्छा प्रदर्शन नहीं किया या फिर अपनी सरकार नहीं बनाई तो क्षेत्रीय दल भी कांग्रेस को मान-सम्मान नहीं देंगे। कांग्रेस के लिए बहुत ज़रूरी है कि वो इन राज्यों में अपना राजनीतिक प्रदर्शन बहुत अच्छा करे।
 
 
पीएम पद पर राहुल की सोच
इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की हत्या के बाद, वो सोनिया हों या राहुल, दोनों सत्ता के शिखर पर बैठने को लेकर उत्साहित नज़र नहीं आते। राजीव गांधी राजनीति में नहीं आना चाहते थे और सोनिया कतई नहीं चाहती थीं कि राजीव राजनीति में आएं, लेकिन इंदिरा की हत्या के बाद परिस्थितियां ऐसी बनीं कि राजीव गांधी प्रधानमंत्री बना दिए गए।
 
राजीव गांधी की हत्या के बाद सोनिया ने पहले राजनीति से दूरी बनाए रखी और जब उन्होंने कांग्रेस की कमान संभाली और फिर 2004 में पार्टी सत्ता में आई तो सोनिया को कांग्रेस संसदीय दल का नेता चुने जाने के बावजूद उन्होंने इस पद से दूरी बनाए रखी। अगर राहुल गांधी उस वक्त या फिर 2009 में भी कांग्रेस की जीत के बाद प्रधानमंत्री के तौर पर थोप दिए जाते तो कांग्रेस की जो स्थिति थी उसमें बगावत तो नहीं ही हो सकती थी। लेकिन राहुल ने ख़ुद ही ऐसा जताने की कोशिश की कि वो सत्ता के शिखर पर बैठने के लिए उस समय तैयार नहीं हैं या कहें कि उनके 'प्रधानमंत्री बनने का वक्त अभी नहीं आया है।'
 
 
अस्तित्व का सवाल
रशीद किदवई कहते हैं, "राहुल गांधी ने अपने पिता के जीवन से कुछ सबक लिया है। वो समझते हैं कि प्रधानमंत्री के गरिमामय पद के लिए राजनीतिक अनुभव होना ज़रूरी है और इसी वजह से उनके मन में इसे लेकर अभी कुछ संदेह-सा नज़र आता है।"
 
"आज वो 47 साल के हैं। आज से 10 साल बाद भी वो 57 साल होंगे और 15 साल बाद 62 साल के। साठ साल की उम्र भारतीय राजनीति के हिसाब से युवा उम्र मानी जाती है स्वर्ण काल मानी जाती है। ऐसे में राहुल गांधी अगर उस समय भी प्रधानमंत्री बनते हैं तो ऐसी देर या मौका गुज़र जानेवाली बात नहीं होगी।"
 
 
"राहुल गांधी को लगता है कि उनका वक्त शायद अभी नहीं आया है। ये भी समझना ज़रूरी है कि अगर वो आज खुद के लिए प्रधानमंत्री पद का दावा मज़बूती से रखेंगे तो क्षेत्रीय दल छिटक जाएंगे।"
 
कुल मिलाकर कांग्रेस के लिए स्थिति तलवार की धार पर चलने जैसी है। राजनीतिक मजबूरी और अस्तित्व का सवाल चाहे जितना ही गंभीर हो, अगर कार्यकर्ताओं में ये मैसेज चला गया कि कांग्रेस सत्ता की दौड़ में नहीं है, कांग्रेस का अध्यक्ष प्रधानमंत्री नहीं बनना चाहता, तो कांग्रेस को उससे बहुत ज़्यादा राजनीतिक नुकसान भी हो सकता है।
 
 
बीजेपी का प्रश्न
यहां सवाल बीजेपी का भी उतना ही महत्वपूर्ण है। कर्नाटक चुनाव से पहले जेडीएस नेता और पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा ने एक बयान दिया था कि वो लोकसभा में नरेंद्र मोदी की वजह से बने हुए हैं।
 
उन्होंने इसकी व्याख्या दी कि 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी की भारी जीत के बाद उन्होंने लोकसभा से बाहर रहने का मन बनाया था, लेकिन नरेंद्र मोदी ने कहा कि सदन को देवेगौड़ा जैसे अनुभवी सांसदों की ज़रूरत है।
 
 
देवगौड़ा के इस बयान के बाद आकलनों का बाज़ार गर्म हो गया और राजनीतिक विश्लेषक ये घोड़े दौड़ाने लगे कि गठबंधन की नौबत आने पर जेडीएस बीजेपी के साथ हाथ मिला सकती है। लेकिन हुआ उसका उल्टा।
 
कांग्रेस के साथ जाने पर जेडीएस को मुख्यमंत्री पद मिला, मंत्री पद मिला, सत्ता में अहम भागीदारी मिली, लेकिन अगर वो सहयोगी दल के रूप में बीजेपी से हाथ मिलाती तो मोलभाव करने की उसकी ताक़त घट जाती। कहने का मतलब कि बीजेपी का राजनीतिक मैनेजमेंट ऐसा नज़र आता है कि उसकी शक्तिशाली स्थिति राजनीतिक विरोधियों को एक होने का अवसर देती है।
 
विपक्ष जितना बिखरा रहेगा, बीजेपी के लिए ये उतनी ही अच्छी ख़बर होगी, उसकी सत्ता को कोई गंभीर चुनौती नहीं मिलेगी और वो लंबे समय तक केंद्र की सत्ता में बनी रह सकती है।
 
लेकिन नरेंद्र मोदी की कार्यशैली कांग्रेस से नाराज़ रहे क्षेत्रीय दलों और नेताओं को भी एकजुट होने का मौका दे रही है जो कि बीजेपी के लिए शुभ संकेत नहीं और ऐसा हो सकता है कि 2019 में जातीय और क्षेत्रीय समीकरण के बल पर तमाम भाजपा विरोधी दल बीजेपी के लिए सत्ता में बने रहने की राह का रोड़ा बन जाएँ।
 
 
कांग्रेस के सामने यक्ष प्रश्न
ऐसे में माजरा बड़ा साफ़ है। बीजेपी बनाम विपक्ष (कांग्रेस+क्षेत्रीय दल) जिसमें कांग्रेस को अपनी भूमिका तलाशनी है। क्या वो कर्नाटक वाला विकल्प सामने रखकर आगे बढ़ना चाहती है या फिर राष्ट्रीय दल के रूप में तमाम नुकसान को बनाए रखकर वर्तमान में नहीं बल्कि भविष्य में अपनी भूमिका देखती है।
 
एक बात और। कर्नाटक में कांग्रेस को 38 फ़ीसदी वोट मिले और बीजेपी को 36 फ़ीसदी, लेकिन बीजेपी को सीटें ज़्यादा मिलीं। यानी बीजेपी की सांगठनिक और उसकी सीटवार रणनीति ऐसी है जो वोट प्रतिशत को सीट में बदलने में कामयाब रहती है।
 
ऐसा कर्नाटक में दिखा और कुछ हफ्ते पहले त्रिपुरा में भी देखने को मिला। कांग्रेस ये सोचती रह गई कि बीजेपी के ख़िलाफ़ सीपीएम का साथ दे न दे और मतदाता भुलावे में रहा। बीजेपी ने पूरे मनोयोग से एंटी इंकंबेंसी के फ़ैक्टर का लाभ उठाया, एक-एक सीट के आधार पर रणनीति बनाई और बहुमत की सरकार बना ली।
 
कांग्रेस का संगठन कमज़ोर है, मात्र चार राज्यों में सरकार है, पार्टी का राष्ट्रीय चरित्र क्षेत्रीय दलों के हाथों ख़तरे में नज़र आता है- ऐसे में राहुल गांधी को बहुत सोच-समझकर क़दम उठाने होंगे ताकि कांग्रेस का राष्ट्रीय चरित्र भी बचा रहे और क्षेत्रीय दल खुद को कांग्रेस का विकल्प न समझने लगें। कर्नाटक में मुख्यमंत्री की कुर्सी क़ुर्बान कर कांग्रेस ने बीजेपी को सत्ता से बाहर रखने की जो अल्पकालिक रणनीति अपनाई है वो उसके लिए अस्तित्व का संकट भी पैदा कर सकती है।
 

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