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'जब गोडसे ने गांधीजी पर दागी थी तीसरी गोली'

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, सोमवार, 30 जनवरी 2017 (12:58 IST)
- के. डी. मदान (ऑल इंडिया रेडियो के पूर्व कर्मचारी) 
 
30 जनवरी, 1948 को दिल्ली में सूरज नहीं निकला था। कोहरे और जाड़े के कारण सड़कों पर दिल्लीवाले ज़्यादा नहीं निकले थे। मैं हर रोज की तरह आकाशवाणी भवन से अलबुकर्क रोड (अब तीस जनवरी मार्ग) पर स्थित बिड़ला हाउस (अब गांधी स्मृति) के लिए निकला।
वक्त रहा होगा दिन के साढ़े तीन बजे। मैं महात्मा गांधी की प्रार्थना सभा की रिकॉर्डिंग के लिए जाता था। सभा शाम पांच से छह बजे तक चलती थी। इसमें सर्वधर्म प्रार्थना होती थी। सभा के अंतिम क्षणों में गांधी सामयिक विषयों पर टिप्पणी करते थे। सभा में आने वाले लोग उनसे बीच-बीच में प्रश्न भी करते थे। बिड़ला हाउस में प्रार्थना सभा का सिलसिला सितम्बर,1947 से शुरू हुआ था।
 
मैं प्रार्थना सभा की रिकॉर्डिंग को बाद में दफ्तर में दे देता था। उसे उसी दिन रात के 8.30 बजे प्रसारित किया जाता था। मैं वक्त पर उस दिन भी बिड़ला हाउस पहुंच गया। वहां पर प्रार्थना सभा में भाग लेने वालों ने आना चालू कर दिया था।
 
मैं अपनी रिकॉर्डिंग मशीन को गांधीजी के मंच के पास रख देता था। रोज की तरह सबसे पहले आने वालों में नंदलाल मेहता थे। वे गुजराती थे। कनॉट प्लेस में रहते थे। साढ़े चार बजे तक प्रार्थना सभा स्थल खचाखच भर गया था। आने वालों में देश से विदेश से, राज्यों से, कोई इंटरव्यू के लिए आ रहा था तो कोई मार्गदर्शन के लिए तो कोई सिर्फ दर्शन करने।
 
गांधीजी को आभास : मैंने इस बीच सरदार पटेल को भी बिड़ला हाउस के अंदर जाते देखा। वे बापू से मिलने के लिए आए थे। रोज की भांति जब गांधी प्रार्थना सभा की तरफ़ आ रहे थे तो उन्हें काठियावाड़ से आए दो लोगों ने रोककर मिलने का वक्त का मांगा था। कहते हैं बापू ने जवाब दिया, 'अगर ज़िंदा रहा तो प्रार्थना के बाद उनसे मिलूंगा।'
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ये बात मुझे बाद में कुछ लोगों ने बताई थी। उस मनहूस दिन दूसरी या तीसरी बार उन्होंने अपनी मौत की बात की थी। मुझे वह मंज़र अच्छी तरह से याद है जब नाथूराम गोडसे ने गांधी पर गोलियां चलाईं थीं। जब बिड़ला हाउस के भीतर से गांधी जी प्रार्थना सभा में शामिल होने के लिए निकले तब मेरी घड़ी के हिसाब से 5.16 मिनट का वक्त था।
 
गोडसे की गोली : हालांकि ये कहा जाता है कि 5.17 बजे उन पर गोली चली। आम तौर पर वे 5.10 बजे प्रार्थना के लिए आ जाते थे, लेकिन उस दिन कुछ देर हो गई थी। उनकी आयु और उनके स्वास्थ्य की वजह से हमेशा उनके कंधे और हाथ मनु और आभा के कंधे पर रहते थे। उस दिन भी उन्हीं के कंधों पर उनका हाथ था। तभी पहली गोली की आवाज आई।
 
मुझे ऐसा लगा कि दस दिन पहले जो पटाखा चला था वैसा ही हुआ है। मैं उसी एहसास में था कि दूसरी गोली चली। मैं इक्विपमेंट छोड़कर भागा, उस तरफ गया जहां काफी भीड़ थी। तभी तीसरी गोली चली। मैंने अपनी आंखों से देखा।
 
बाद में पता चला कि गोली मारने वाले का नाम नाथू राम गोडसे था। उसने खाकी कपड़े पहने थे। उसका कद काफी मेरे जैसा ही था। डीलडौल भी मेरे जैसी ही थी। तीसरी गोली चलाने के बाद उसने दोबारा से हाथ जोड़े।
मैंने सुना है पहली गोली चलाते हुए भी हाथ जोड़े थे। उसके बाद लोगों ने उसे पकड़ लिया। उसने किसी भी तरह का विरोध नहीं किया बल्कि अपनी जो रिवॉल्वर थी, उसे भी उनके हवाले कर दिया।
 
इससे पहले 20 जनवरी, 1948 को भी बिड़ला हाउस में हमला हुआ था। अगले दिन अखबारों में छपा कि मदन लाल पाहवा नाम के शख्स ने पटाखा चलाया था और उसकी ये भी मंशा थी कि गांधीजी को किसी तरीके से चोट पहुंचाई जाए।
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उसी दिन प्रार्थना सभा में गांधीजी ने ये कहा कि जिस किसी ने भी ये कोशिश की थी उसे मेरी तरफ से माफ कर दिया जाए। गांधीजी का ये आदेश था कि कोई भी पुलिस वाला उनकी प्रार्थना सभा में नहीं होगा, लेकिन जब 30 जनवरी को उन पर हमला हुआ तो कुछ लोगों ने पुलिस को इत्तिला दी।
 
अंत्येष्टि : गोडसे को पार्लियामेंट स्ट्रीट के डीएसपी जसवंत सिंह और तुगलक रोड थाने के इंस्पेक्टर दसौदा सिंह ने पकड़ा हुआ था। बिड़ला हाउस में भगदड़ मची हुई थी। गांधीजी को बिड़ला हाउस के अंदर लेकर जाया जा रहा था।
 
गोडसे को तुगलक रोड थाने में ले जाया गया था। वहां पर गांधी जी की हत्या का एफआईआर लिखा गया। पुलिस ने गांधी की हत्या का एफआईआर कनाट प्लेस के एम-56 में रहने वाले नंदलाल मेहता से पूछ कर लिखा।
मुझे वह दिन भी याद हैं जब गांधीजी की अंत्येष्टि हुई थी। 31 जनवरी को मैं भी शाम के वक्त राजघाट पहुंच गया था। उस काले दिन राजधानी की सड़कों पर मुंड ही मुंड दिख रहे थे।
 
सैकड़ों लोगों ने गांधी की मौत के गम में अपने सिर मुंडवा लिए थे। राजधानी और इसके आसपास के ग्रामीण इलाकों के हजारों लोग अपना देसी घी लेकर श्मशान स्थल पर पहुंच गए थे। इनकी चाहत थी कि जो घी वे लेकर आए हैं, उसीसे गांधी की अंत्येष्टि हो जाए। शव यात्रा बिड़ला हाउस से जनपथ, कनाट प्लेस, आईटीओ होते हुए राजघाट पहुंची थी। शववाहन पर पंडित नेहरू और सरदार पटेल बैठे थे। दोनों शोकाकुल थे।
 
उसी वाहन पर गांधी के पुत्र रामदास और देवदास भी थे। इन्होंने ही अपने पिता को मुखाग्नि दी थी। वैसे, गांधी जी की अंत्येष्टि की सारी व्यवस्था भारतीय सेना के ब्रिटिश कमांडर सर राय बूचर कर रहे थे। बहरहाल, मुझे गांधी जी रेडियो वाला बाबू कह कर बुलाते थे। रोज मिलते रहने के चलते बापू मुझे जानने लगे थे। कभी कभी गांधीजी आधे घंटे से ज्यादा बोल जाते थे। मेरे लिए बड़ा मुश्किल होता था उनकी स्पीच को एडिट करना।
 
मैंने ये बात उनकी सहयोगी डॉक्टर सुशीला नायर को बताई कि उन्हें एडिटिंग करने में काफी परेशानी होती है। सुशीला जी सुनते ही नाराज हो गईं। कहने लगी कि तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई गांधीजी की बातों को एडिट करने की। मैं इसकी शिकायत सरदार पटेल से करूंगी।
 
मैंने सोचा कि मेरी नौकरी तो जानी ही है तो मैंने बड़ी हिम्मत करके एक दिन प्रार्थना सभा से ठीक पहले अपनी परेशानी गांधीजी को बताई। उन्होंने बड़ी ही विनम्रता के साथ कहा, "जैसे ही 28 मिनट पूरे हों तो आप उंगली उठा देना। जैसे ही मेरी उंगली गांधी देखते थे, वे कहते- बस, कल बात करेंगे।"
 
(के डी मदान की वरिष्ठ पत्रकार विवेक शुक्ला से बातचीत पर आधारित।)
 

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