मुसलमान होने पर क्यों शर्मिंदा है ये लड़की?

Webdunia
शुक्रवार, 23 जून 2017 (12:30 IST)
ब्रिटेन में हाल के दिनों में हुए कई चरमपंथी हमलों के बाद वहां के मुसलमानों पर संदेह बढ़ा है। इसी संदेह और सोच के बारे में 'बीबीसी 5 लाइव' से ज़रीना कापसी नाम की एक मुस्लिम लड़की ने बात की। उन्हीं के शब्दों में पढ़िए कि एक आम मुस्लिम इन हमलों के बाद किन द्वंद्वों से गुजरता है-
 
मैनचेस्टर हमले के बाद मैं मुसलमान और एशियाई होने पर शर्मिंदगी महसूस करती हूं। हाल ही मैंने लोगों को समझाने की वह हर कोशिश की कि इस्लामिक चरमपंथी उस धर्म का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं जिसे मैं मानती हूं। लंदन ब्रिज हमले के दौरान मुझे यहां तक लगा कि उन लोगों को ख़ारिज नहीं कर सकते जो हम पर मुश्किल से भरोसा करते हैं। हाल के दिनों में आसपास घुमते हुए मेरी चेतना में सिहरन की स्थिति रही। ऐसा लग रहा था कि हर कोई मुझे देखते हुए सोच रहा है कि कहीं मैं भी उन लोगों में से एक तो नहीं हूं?
 
फिन्सबरी पार्क मस्जिद के बाहर नमाज़ियों पर हमले के बाद मैं सोच रही थी कि इस मामले में रंग, नस्ल या धर्म मायने नहीं रखते हैं। मुझे लगा कि आतंकवादी कोई भी बन सकता है। पर मुझे लगा कि कई लोग इसे बिल्कुल अलग तरह से देखते हैं। इस मामले में सोशल मीडिया पर भयावह प्रतिक्रिया आई।
 
एक ने कहा, ''फिन्सबरी पार्क मस्जिद के बाहर हुए हमले को अगर तुम आतंकवादी हमले की तरह देखती हो तो बेवकूफ हो।'' मैं मानती हूं कि मूल रूप से सांवले लोग इस मामले में कड़ा रुख़ रखते हैं कि लोगों को मारना आतंकवाद है लेकिन गोरे लोग इस मामले में अलग सोचते हैं। उन्हें लगता है कि लोगों को मारना मानसिक बीमारी या मनोरोग का लक्षण है। उन्हें लगता है कि यह मानसिक बीमारी का मुद्दा है।
गोरे लोगों के पागलपन और सांवले लोगों के पागलपन में फ़र्क क्यों है?
यहां जब भी कोई आतंकवादी हमला हुआ तो मैं सबसे पहले गई। लोगों को महसूस करने की ज़रूरत है कि मुसलमान में सैकड़ों और हज़ारों तरह के लोग हैं। मिसाल के तौर पर- मैं दाऊदी बोहरा हूं जो कि शिया मुसलमान के भीतर का एक समुदाय है। लोगों को यह भरोसा नहीं होता है कि इस्लाम की प्रमुख सीख सहिष्णुता और मानव प्रेम है। यह इस्लाम की आत्मा है।
 
अगर एंड्रेस ब्रेइविक, जेम्स हैरिस जैक्सन, डिलन रूफ़ जैसे नाम वाले गोरे लोग ऐसा करते हैं तो कोई महसूस नहीं करता कि सभी गोरों और ईसाई आबादी का बचाव करने की ज़रूरत है। हर कोई इसे बड़ी आसानी और ख़ुद से स्वीकार कर लेता है कि ये हत्याएं एक अपवाद की तरह हैं।
हाल के हमलों की कई मीडिया घरानों में जिस तरह रिपोर्टिंग हुई उन्हें नोटिस न किया गया हो यह असंभव है। फिन्सबरी पार्क मस्जिद के बाहर जो नमाज़ियों पर हमला हुआ उसकी रिपोर्टिंग देख सकते हैं। द टाइम्स की हेडलाइन थी कि एक बेरोजगार व्यक्ति ने ऐसा किया और हालात ने उसे ऐसा करने पर मजबूर किया। जब लंदन ब्रिज जब पर हमला हुआ था तो द टाइम्स ने हेडिंग लगाई थी- बाज़ार में क़त्लेआम।
 
इस्लामिक स्टेट जितना किसी और से नफ़रत करता है उतनी ही नफ़रत मुझसे करता है। मध्य-पूर्व में इस्लामिक स्टेट से ज़्यादातर पीड़ित शिया मुस्लिम हैं। रिसर्च से भी पता चलता है कि चरमपंथी हिंसा की चपेट में सबसे ज़्यादा मुस्लिम हैं। लेकिन इसे कोई सुनने वाला नहीं है। ऐसे में मैं वाकई परेशान हो जाती हूं।
 
ब्रिटेन के समाज में नस्लवाद बढ़ता जा रहा है। मेरे लिए यह दुख की बात है कि मैंने पहले ऐसा कभी महसूस नहीं किया। यह साफ़ है कि आतंकवाद केवल अल्पसंख्यकों की समस्या है। चाहे वह इस्लामिक चरमपंथ हो या दक्षिणपंथी अतिवाद। आतंकवादी एक अल्पसंख्यक ही होता है। इनकी कोशिश होती है कि इसका असर बहुसंख्यक पर पड़े। फिन्सबरी पार्क मस्जिद के बाहर मुसलमानों पर हमला हुआ तो उनके समर्थन में लोगों का जुटना बहुत अच्छा लगा। यहां लोगों ने जो संदेश दिए वह मानवता की अभिव्यक्ति थी।
 
तब मुझे अहसास हुआ कि बहुसंख्यक लोग ऐसा नहीं सोचते हैं कि सभी मुसलमानों को आतंकवाद के रंग से रंग दिया जाए। इससे मेरे मन में एक उम्मीद भी जगी कि ब्रिटिश लोगों के जेहन में यह बात है कि लोग डर का माहौल पैदा करना चाहते हैं। एक मुसलमान के लिए रमज़ान का महीना ख़ास होता है।
 
इसे आपको समझने की ज़रूरत है। मैं इस मामले में पहली और सबसे आगे रहने वाली ब्रिटिश महिला हूं और इन वाकयों पर आप ही की तरह दुखी और आक्रोशित होती हूं। मैं हमेशा आपके साथ खड़ी रहूंगी। हम सभी को एक साथ खड़ा रहना चाहिए। हमेशा नफ़रत पर प्यार भारी पड़ता है।
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