कीर्ति दुबे (बीबीसी संवाददाता, मेरठ)
'पुलिस ने 10 मिनट में ही पोस्टमॉर्टम कर दिया। पुलिस वाले हमारे घर साथ आए थे और कहा कि दिन निकलने से पहले दफ़ना दो। सुबह 4 बजे बेटे को मिट्टी दे दी। अभी तक हमें पोस्टमॉर्टम की पर्ची भी नहीं दी। एफ़आईआर करने के लिए थाने गए थे तो हमें ही डांटने लगे। बोले, ख़ुद मारकर लाए हो। पहले पुलिस को मारो फिर एफ़आईआर दर्ज कराओ।'
ज़हीर के पिता मुंशी अपनी बात ख़त्म करने से पहले पास में खड़े एक शख़्स से पानी मांगते हैं। उनके रुंधे गले में शब्द अटकने लगते हैं। मुंशी की बूढ़ी आंखों ने 17 दिन पहले अपने बेटे का जनाज़ा उठते देखा है। वो बेटा जो उनके घर में कमाने वाला अकेला था।
देशभर में नागरिकता संशोधन क़ानून को लेकर विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं, लेकिन 20 दिसंबर को यूपी से विरोध प्रदर्शनों की जो तस्वीरें सामने आईं, वो बेहद डरावनी थीं। राज्य में अब तक कम से कम 19 लोगों की मौत इस हिंसा के दौरान हुई है।
सिर्फ़ मेरठ में इस हिंसा में 5 लोगों की सीधे गोली लगने से मौत हो गई। मौत के 18 दिनों के बाद भी न तो इन परिवारों को पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट मिली है और न ही अब तक कोई एफ़आईआर दर्ज हुई है। हालांकि मेरठ पुलिस का कहना है कि अगर इन परिवारों से कोई भी पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट लेने आएगा तो पुलिस ज़रूर ये रिपोर्ट उनको देगी।
मेरठ के अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक प्रशांत कुमार ने बीबीसी से कहा, 'पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट लेने की एक प्रक्रिया होती है। एक साधारण फीस भरकर लोग पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट पा सकते हैं। रोका नहीं जा रहा। रह गई बात एफ़आईआर की तो अगर कोई एफ़आईआर दर्ज कराएगा तो ज़रूर एफ़आईआर दर्ज कराई जाएगी।'
लेकिन परिवारों का दावा पुलिस के दावे से बिलकुल अलग है। ठेले पर सामान ढोने वाले वाले ज़हीर अपने पीछे अपने बूढ़े पिता, 21 साल की बेटी और पत्नी के लिए दुखों का अंबार छोड़ गए हैं। 20 दिसंबर को ज़हीर काम से वक़्त निकालकर खाना खाने आए थे। इसके बाद वो अपने लिए बीड़ी लेने पास की दुकान पर गए थे लेकिन फिर वो कभी नहीं लौटे।
22 साल की उनकी बेटी शहाना इस इस घर में अकेली अपनी मां का सहारा हैं। उस शुक्रवार को याद करते हुए वो कहती हैं, 'पुलिस ने तो हमें अब तक हमारे अब्बा की पोस्टमॉर्टम की पर्ची तक नहीं दी। ये गली बिलकुल शांत थी। यहां कोई प्रदर्शन नहीं हो रहा था। वो बगल की गुमटी (छोटी दुकान) पर गए थे। इधर से पुलिस फायरिंग करती आई और गोली मेरे पापा को सीधे दिमाग़ में लगी। वो वहीं पर गिर गए। लेकिन मेरे पापा को गिरा छोड़कर पुलिस आगे बढ़ गई।'
ये कहते ही शहाना फूट पड़ती हैं। परिवार की ग़रीबी के कारण शहाना कभी स्कूल नहीं जा सकीं, लेकिन पिता का मकान के लिए लिया गया क़र्ज़ और रोटी का इंतज़ाम अब कैसे होगा, ये चिंता उन्हें सोने नहीं देती। आंखों में आंसू लिए वो ये बार-बार दोहराती हैं, 'कौन खिलाएगा हमें, अब कैसे जिएंगे? हम मां-बेटी के लिए सिर्फ़ वही थे।'
मेरठ की तंग गलियों वाले इस मुस्लिम इलाक़े में ही मोहसिन रहा करते हैं। लेकिन अब इस घर से एक बेसुध मां नफ़ीसा के दुखों की गाढ़ी चीख सुनाई पड़ती है, जो सीधे दिल में आकर धंस जाती है। ये चीखें सुनकर लगता है कि एक मां के विलाप से गाढ़ा और कुछ नहीं हो सकता। हमसे बात करते हुए भी एक लम्हें को भी उनके आंसू नहीं थमे।
नफ़ीसा कहती हैं। 'ग़लती हो गई मुझसे जो मैं ही चारा लाने चली जाती तो बेटा ज़िंदा होता। लगभग ढाई बजे मैं भैसों के लिए चारा लेने जा रही थी। उसने कहा, तू रहने दे मां, मैं जाता हूं। फिर मैं नमाज़ पढ़ने चली गई। थोड़ी ही देर में ज़ोर से शोर सुनाई पड़ा। मैं उठी और लोगों से पूछा मोहसिन आ गया क्या? लेकिन पता चला वो नहीं आया। गली में आंसू गैस का धुआं था। ये सब देखकर मैं बेहोश हो गई, जब होश आया तो पता चला कि मेरे बेटे को गोली लग गई।'
'अरे तुम हाथ में मारते, पैर में मारते लेकिन निशाना तानकर मेरे बच्चे को दिल में गोली मारी। 6 महीने का उसका बालक है। जब वो अब्बू बोलना सीखेगा और पूछेगा हमसे कि मेरे अब्बू कहां हैं तो क्या बताऊंगी? एफ़आईआर कराने गई थी लेकिन नहीं लिखी गई। पुलिस वालों से क्या उम्मीद उन लोगों ने तो बंदूक की नोंक पर 2 बजे रात को मेरे बेटे की क़ब्र खुदवाई।'
उसके भाई-बहनों को आख़िरी बार उसका चेहरा भी नहीं देखने दिया। पुलिस की कई गाड़ियां आई थीं। वो चिल्ला रहे थे कि सूरज निकलने से पहले दफनाओ। उसके बाद आज तक पुलिस न आई।' 'हमें तो ये पर्ची (पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट) भी नहीं दे रहे। आज होता तो तुझे दिखाती। मैं तो पढ़ नहीं सकती, तुझसे पूछ लेती क्या लिखा है उसमें'।
लेकिन बीबीसी ने जब इस मामले पर पुलिस से बात की तो हमें दो अधिकारियों से बिलकुल उलट बयान मिले। मेरठ के एडीजी प्रशांत कुमार ने हमें बताया कि इस हिंसा में पुलिस ने गोली ही नहीं चलाई। जो भी मौतें हुईं, वो प्रदर्शनकारियों की गोलियों से ही हुईं।
उन्होंने कहा, 'जहां भी मौतें हुई हैं, वहां पुलिस ने बंदूक का इस्तेमाल ही नहीं किया। पुलिस का अब तक कोई ऐसा वीडियो नहीं है जिसमें वो बंदूक चलाती नज़र आ रही है। पुलिस ने आंसू गैस, रबर बुलेट और लाठी चार्ज किया, लेकिन फायरिंग नहीं की। पुलिस ज़रूरत पड़ने पर बल का इस्तेमाल कर सकती है तो अगर हम ऐसा कुछ करेंगे तो उसे मानेंगे भी लेकिन ऐसा पुलिस की ओर से नहीं किया गया। पश्चिमी यूपी में जब भी कोई तनाव होता है तो वह महीनों तक चलता है और संप्रदायिक हिंसा होते देर नहीं लगती। पुलिस ने तो इस पूरे मामले को 3 घंटे में कंट्रोल कर लिया।'
वहीं मेरठ के एसपी सिटी अखिलेश नारायण सिंह ने बीबीसी के कैमरे पर कबूला कि 20 दिसंबर को हुई हिंसा में पुलिस ने गोलियां चलाईं लेकिन सिर्फ़ हवाई फ़ायरिंग की गई।
इस पर बीबीसी की टीम ने उन्हें तुरंत मेरठ का एक वीडियो दिखाया जिसमें पुलिस बंदूक ने निशाना लगाकर गोली चला रही है। जैसे ही ये वीडियो एसपी सिटी ने देखा वो कुछ सेकंड के लिए चुप हो गए। फिर उन्होंने कहा, 'जो वीडियो आप दिखा रही हैं ये पंप एक्शन गन के हैं। इसके बोर बेहद छोटे होते हैं। इस बोर से किसी कैज़ुएलिटी का मामला सामने नहीं आया है। ये हवाई फ़ायरिंग हमने लोगों को डराने के लिए की थी।'
इस पर बीबीसी संवाददाता ने पूछा कि वीडियो में जो दिख रहा है वो हवाई फ़ायरिंग तो नहीं है। लेकिन एसपी सिटी ने फ़िर अपना पुराना बयान दोहराते हुए कहा कि इसका कोई मामला हमारे सामने नहीं है। इसके बदले में हमें उन्होंने एक वीडियो दिखाया। उन्होंने दावा किया कि इसमें प्रदर्शनकारी गोलियां चला रहे हैं। लेकिन बीबीसी उस वीडियो की प्रामाणिकता की जांच नहीं कर सका। न ही हमें पता चला की वो वीडियो किस इलाक़े का है।
24 साल के अलीम की भी इस हिंसा में गोली लगने से मौत हो गई। अपने विकलांग भाई, 85 साल के पिता और अपनी 22 साल की पत्नी का वो अकेला सहारा थे। अलीम एक ढाबे पर रोटी बनाने का काम करते थे। 20 दिसंबर को जब शहर के हालात बिगड़े तो उन्हें मालिक ने घर जाने को कहा। लेकिन ढाबे से घर को निकले आलीम अपने घर नहीं पहुंच सके।
अलीम के घर वालों ने जो सहा वो किसी बुरे सपने से भी बुरा था। अलीम के विकलांग भाई सलाउद्दीन को अपने मरे हुए छोटे भाई के शव के लिए घंटों तक परेशान किया गया। 85 साल के अलीम के पिता को बढ़ती उम्र में कुछ भी याद नहीं रहता। वो कभी-कभी ये भी भूल जाते हैं कि अलीम मर चुका है। वो हमारी बात ठीक-ठीक सुन तो नहीं सकते थे, लेकिन जब उन्हें पता चला कि हम अलीम के बारे में उसने बात करना चाहते हैं तो रो पड़े।
उन्होंने कहा, 'रोज़ सुबह काम पर जाने से पहले बोलता, अब्बा दवा खा लेना। रात को आकर पूछता था अब्बा तबीयत तो ठीक है, लेकिन जुम्मे (20 दिसंबर) के दिन गया और फिर नहीं लौटा। मिट्टी भी उसे अपने घर की नसीब नहीं हुई। मेरे बेटे को पुलिस ने गोली मारी। कनपटी पर बंदूक मारी। मेरा बेटा मेरे बुढ़ापे की लाठी था। अपने विकलांग भाई के लिए भी वही कमाता था। पता नहीं किसे उठाकर लेकर चल दे पुलिस। इन्हें कोई रोकने वाला नहीं है।'
छोटे भाई की मौत पर सलाउद्दीन कहते हैं, '21 दिसंबर की सुबह हम अजान के समय मुर्दाघर पहुंचे। वहां पास की गली में मरे दूसरे शख़्स आसिफ़ की लाश दिखाई गई और कहने लगे यही ले जाओ। कोई अन्य और शव नहीं है।'
'फिर हमें लसाड़ी गेट थाने भेजा वहां पता चला कि एक शव था, जो दिल्ली चला गया है। जब मैं हाथ जोड़कर रोने लगा तो मुझे मेरे भाई का शव मिला। फिर पुलिस ने कहा कि आप ये शव अपने घर नहीं ले जा सकते। उन्हें किसी ने जानकारी दी थी कि यहां लोगों की भीड़ लगी है। हम अपने भाई को दूसरी गली में रहने वाले दूर के भाईजान के घर ले गए और 5 बजे से 7 बजे के बीच हमारे भाई को जल्दी-जल्दी मिट्टी दे दी गई।'
'आज पूरे 17 दिन हो गए लेकिन हमें अब तक पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट नहीं दी गई। जिसे मैंने अपने हाथों से पाला, खाना खिलाया, साथ में बड़े होते देखा वो एकदम से दूर चला गया। ये तो हमारे लिए ज़िंदगीभर का दुख हो गया।'
यूं तो जुम्मे का दिन मुसलमानों के लिए ख़ास और पवित्र माना जाता है लेकिन 20 दिसंबर का ये जुम्मा इन परिवारों के लिए ऐसी काली रात लाया, जो इनकी ज़िदगी के सारे उजालों को लील गया। 18 दिनों बाद भी मेरठ की इन गलियों में एक डर समाया हुआ है। यहां रहने वालों को अब पुलिस-प्रशासन से कोई उम्मीद नहीं है, लेकिन इंसाफ़ का इंतज़ार अब भी बेबस आंखों को है।