- वेरोनिक़ ग्रीनवुड
क्या आप को याद है कि आज से एक दशक पहले जब आप तेल-घी ख़रीदते थे, तो वो 1 किलो के वज़न में आता था? मगर, आज वो लीटर में आता है। 1 लीटर, यानी 910 ग्राम। एक किलो से कम। इसी तरह आधा किलो चाय पत्ती के कई डिब्बे अब 450 ग्राम में आते हैं। पहले जहां चीज़ें पाव के पैकेट में आती थीं, वैसे कई सामान अब 200 ग्राम के पैकेट में आने लगे हैं।
घर में अक्सर लोग शिकायत करते हैं कि फलां सामान के पैकेट में पहले ज़्यादा सामान आता था, अब कम आने लगा है। पैकेट जल्दी ख़त्म हो जाते हैं। दर्ज़न भर मिलने वाला सामान अब 9 या 10 के पैक में आने लगा है। तेल-घी हो, टमाटर के सूप का पैकेट हो, बिस्किट हो या फिर टॉयलेट पेपर के रोल। हाल सब का यही है।
आख़िर माजरा क्या है?
ऐसा नहीं है कि लोगों को भ्रम मात्र है। ये हक़ीक़त है, जिससे लोग धीरे-धीरे वाबस्ता हो रहे हैं। 500 ग्राम का चायपत्ती का डिब्बा जब 450 ग्राम का हो जाता है, तो हाथ से उठाने में वज़न में कमी का एहसास नहीं होता। हां, जब आप उसकी जानकारी वाले हिस्से को पढ़ते हैं, तब जाकर आप को पता चलता है कि साहब वज़न में दस फ़ीसदी की कटौती कर दी गई है।
तेल-घी के पैकेट के साथ यही हुआ है। टॉयलेट पेपर के रोल जो कभी 12 के पैक में आते थे, वो अब 9 के पैकेट में आने लगे हैं। अब आपने नोटिस भले ही देर से किया है, मगर ये हो काफ़ी वक़्त से रहा है। और सिर्फ़ भारत में नहीं, पूरी दुनिया में सामान के वज़न और तादाद ऐसी कटौतियां की जा रही हैं, तो क़ाबिले-ग़ौर नहीं हैं। मगर, जनता धीरे-धीरे उन्हें पकड़ पा रही है।
हाल ही में इंग्लैंड में मशहूर टोबलेरोन चॉकलेट ने अपने साइज़ छोटे किए तो लोग नाराज़ हो गए। हंगामा बरपा हो गया। चॉकलेट बनाने वाली कंपनी ने फ़ेसबुक पर सफ़ाई दी कि हमने चॉकलेट बार का आकार इसलिए बदला ताकि ये लोगों की पहुंच में रहे।
वैसे, ज़्यादातर कंपनियां चाहेंगी कि उन्हें ऐसे हालात का सामना न करना पड़े। वैसे भी किसी भी नए प्रोडक्ट को नई पैकेजिंग के साथ बाज़ार में उतारने से पहले उसके जमा-ख़र्च का सारा हिसाब लगा लिया जाता है। अगर किसी भी सामान को नई पैकेजिंग के साथ बाज़ार में लाना है, तो कंपनी को पहले उस तरह के डिब्बे या पैकेट बनाने वाली नई मशीन लगानी होगी।
यही वजह है कि बहुत सी कंपनियां पैकिंग का साइज़ तो वही रहने देती हैं, मगर उसका वज़न या तादाद घटा देती हैं। ब्रिटेन में मार्केटिंग के प्रोफ़ेसर पियर चैंडन कहते हैं कि 2012 से 2017 के बीच ब्रिटेन में बिकने वाले 2529 सामानों की तादाद घट गई।
आख़िर ऐसा क्यों हो रहा है?
इस सवाल के जवाब में कई वजहें गिनाई जा सकती हैं। जैसे कि लागत बढ़ रही है। लेकिन, कई बार कंपनियां अपना मुनाफ़ा बढ़ाने के लिए भी ये नुस्खा आज़माती हैं। कुछ लोग तो ऐसे बदलाव पर फ़ौरी नाराज़गी जताकर उसे भूल जाते हैं। जैसे अब हमें एक किलो घी का पैकेट लेने के बजाय एक लीटर का पैक लेने की आदत हो गई है। वहीं, बहुत से ऐसे भी हैं, जो लंबे वक़्त तक ऐसे छल को याद रखते हैं।
इन्हीं में से हैं अमेरिका के एडगर ड्वोरस्की। एडगर ग्राहकों के हितों की लड़ाई लड़ने वाले वक़ील हैं। उनके पास बरसों पहले की बोतलें, डिब्बे और दूसरे पैकेट रखे हुए हैं, जो बीस-तीस साल पुराने हैं।
एडगर कहते हैं कि सामान घटाकर बेचने की सबसे पहली मिसाल जो उन्हें याद है, वो है बचपन में कॉफ़ी ख़रीदने की। तब लोग आधा गैलन आइस्क्रीम और एक गैलन दूध के साथ 454 ग्राम कॉफ़ी का एक डिब्बा ख़रीदते थे। अचानक उन्होंने देखा कि 16 आउंस कॉफ़ी के डिब्बे में पहले 13 आउंस कॉफ़ी आने लगी। फिर ये और घट गई। मज़े की बात ये कि डिब्बे का आकार नहीं घटा था।
उन्होंने जब कंपनी से पूछा, तो, कंपनी ने कहा उसकी कॉफ़ी के दाने और फूल गए हैं। इन्हें और स्वादिष्ट बनाने के लिए ऐसा किया गया है। लिहाज़ा कॉफ़ी के इतने फूले हुए दाने उसी डिब्बे में नहीं आ पाते। इसलिए तादाद कम की गई!
बाद में यही बात एक टॉयलेट पेपर रोल बेचने वाली कंपनी ने कही। उसने टॉयलेट पेपर को मुलायम बनाया, जिससे वो पुराने पैकेट में कम तादाद में आता है। ग्राहकों के लिए काम करने वाली ब्रिटेन की एक संस्था 'व्हिच' के मुताबिक़, पिछले दो साल में ब्रिटेन में बिकने वाले टॉयलेट पेपर रोल के पैकेट, तादाद 14 फ़ीसदी तक घट गए हैं।
यहां तो मुलायमियत की बात थी। मगर, टूथपेस्ट जैसी चीज़ों की तादाद भी पैकेट में घट गई। अब इसकी वजह क्या बताएंगी कंपनियां? इसी तरह अमरीका में पिछले तीन सालों में पैकेट में बिकने वाले अनाज के वज़न घट गए हैं, जबकि क़ीमत वही है।
बीबीसी ने ब्रिटेन में ऐसी ही रिसर्च में पाया कि पिछले चार साल में ब्रिटेन में बिकने वाले चॉकलेट बार का वज़न 13 से 17 फ़ीसदी तक घट गया है।
एडगर कहते हैं कि आकार, वज़न और तादाद घटाने का ये सिलसिला शायद एक सदी पहले शुरू हुआ। जब मशीन से चॉकलेट बेचने वाली कंपनी ने लागत बढ़ने की वजह से क़ीमत बढ़ाने की सोची, तो उससे नुक़सान का डर था। वहीं जिस मशीन से ये चॉकलेट बेची जाती थी, वो 5 आउंस के सिक्के ही लेती थी। क़ीमत बढ़ाते, तो नई मशीनें लगानी पड़ती। सो, कंपनी ने तय किया कि चॉकलेट बार को ही पतला कर देते हैं!
कंपनियों के पास होता है क्या विकल्प
किसी भी सामान की लागत बढ़ने पर कंपनी के पास तीन विकल्प होते हैं, या तो क़ीमत बढ़ाएं, या छोटी पैकिंग तैयार करें, या फिर उसमें इस्तेमाल होने वाला कच्चा माल बदलें।
किसी भी सामान की रेसिपी में बदलाव किसी भी कंपनी के लिए बेहद घातक साबित हो सकता है। प्रोडक्ट का स्वाद बदलने पर ग्राहक छिटक सकते हैं। सस्ता और घटिया सामान इस्तेमाल करने पर कंपनी को बदनामी उठानी पड़ सकती है।
अमेरिका में मार्केटिंग के प्रोफ़ेसर मार्क लैंग बताते हैं कि वहां 1970 से 1990 के दशक में कुछ कंपनियों ने कच्चे माल में हेर-फेर से लागत घटाने की कोशिश की। ग्राहकों ने इसे विश्वासघात माना। ग्राहकों के हितों के लिए काम करने वालों ने कंपनियों के ख़िलाफ़ मुहिम छेड़ दी। ख़रीदार कम हो गए। नतीजा ये कि कंपनियां ऐसे तजुर्बों से बचने लगी हैं।
फिर कंपनी के पास दूसरा विकल्प होता है, दाम बढ़ाने का। कंपनियां अक्सर इससे बचने की कोशिश करती हैं। क्योंकि ग्राहकों को इसका तुरंत पता भी चलता है और उनकी जेब पर इसका सीधा असर भी होता है। ऐसे में कंपनियों को डर होता है कि दाम बढा़एंगी, तो ग्राहक छिटक जाएंगे।
तो, लागत बढ़ने पर कंपनियों के पास तीसरा और आख़िरी विकल्प बचता है अपने प्रोडक्ट का वज़न या तादाद घटाना। आम तौर पर ये बदलाव इतना मामूली होता है, कि ग्राहक इसे शुरुआत में नोटिस ही नहीं करते। फिर इसे लेकर लोगों में उतनी नाराज़गी ही नहीं होती।
कई बार कंपनियां चालाकी से भी काम लेती हैं
जैसे कि किसी बोतलबंद सामान में नीचे की तरफ़ छल्ले बढ़ा दिए। इससे बोतल का आकार तो वही रहता है, मगर सामान कम आने लगता है। मोमबत्तियों की लंबाई बढ़ा दी और उन्हें पतला कर दिया। इससे पैकेट तो बड़ा दिखता है, मगर मोमबत्ती का वज़न 24 फ़ीसद तक घट जाता है।
बोतल का आकार घटा दिया जाता है। 250 ग्राम का पैकेट 200 ग्राम कर दिया जाता है। लागत घटने पर ऐसा करना बहुत से कंज़्यूमर एक्टिविस्ट के लिए सही वजह है। वो चाहते हैं कि कंपनियां इस बारे में ईमानदारी से काम लें।
चॉकलेट या आइसक्रीम खाते वक्त हम आख़िर में आते-आते अफ़सोस करने लगते हैं कि वज़न बढ़ाने वाली चीज़ खा ली। तो, ऐसे सामान बेचने वाले अपने पैकेट के साइज़ छोटे करें, तो इस तरह से मार्केटिंग कर सकते हैं कि वज़न कम, स्वाद ज़्यादा, सेहत और भी ज़्यादा!
एडगर ड्वोरस्की कहते हैं कि कंपनियां अक्सर ग्राहकों को कम अक़्लमंद समझकर ये चालाकियां करती हैं। इससे उन्हें आगे चलकर नुक़सान ही होता है। मगर वो इससे बाज़ नहीं आतीं। वो ये भी कहते हैं कि पहले जो सामान बड़े पैकेट में मिलती थी, वो घटते-घटते आधी रह जाती है। फिर ओरिजिनल पैकेजिंग के सामान को मेगा पैक कहकर बेचा जाता है। अब इसके पीछे क्या मार्केटिंग रणनीति होती है, ये पता नहीं?
एडगर चाहते हैं कि कंपनियां अपनी पैकेजिंग के वज़न या तादाद को घटाएं, तो उस पर लिखें कि उन्होंने ऐसा किया है। हालांकि ये नामुमकिन सी ख़्वाहिश है।