ब्लॉग: इस कहानी ने भारत में 'काबुलीवालों' की छवि बदलकर रख दी

Webdunia
सोमवार, 28 मई 2018 (11:19 IST)
- वंदना बीबीसी टीवी एडिटर (भारतीय भाषाएं)
 
एक बंगाली कहानी 'काबुलीवाला', जिसे रवींद्रनाथ टैगोर ने लिखा, एक अफ़गान शख़्स के बारे में जिसे अपना देश छोड़ कोलकाता आना पड़ता है। एक ऐसी कहानी जिसका भारत में रहने वाली आयरलैंड की सिस्टर निवेदता ने अंग्रेज़ी में अनुवाद किया। जिसे पंजाब के एक उम्दा कलाकार बलराज साहनी ने सिनेमा के पर्दे पर उतारा।
 
 
यानी कई सरहदों को पार करती एक कहानी। और कला की शायद यही ख़ूबसूरती होती है। साल 1892 में लिखी टैगोर की कहानी 'काबुलीवाला' को अब फ़िल्म 'बाइस्कोपवाला' में एक नया रूप दिया गया है जिसमें अभिनेता डैनी ने अफ़ग़ान शख़्स का रोल किया है। इससे पहले निर्देशक हेमेन गुप्ता ने साल 1961 में टैगोर की कहानी पर हिन्दी फ़िल्म 'काबुलीवाला' बनाई थी।
 
 
'ए मेरे प्यारे वतन'
मन्ना डे की बेमिसाल आवाज़ में गाया गीत "ए मेरे प्यारे वतन, ए मेरे बिछड़े चमन, तुझ पे दिल क़ुर्बान..." उस इंसान के दर्द को बयां करता है जो रोज़ी रोटी के लिए अपनी बेटी को अफ़ग़ानिस्तान में छोड़ दूर कलकत्ता (अब कोलकाता) चला आता है और उसे वतन की याद सताती है।
 
 
लेकिन काबुलीवाला की कहानी इससे कहीं ज़्यादा है। ये दो इंसानों के बीच के भरोसे और बिना शर्तों वाले प्रेम की कहानी भी है। कोलकाता के एक 'अच्छे परिवार' में रहने वाली चार-पाँच साल की बच्ची मिनी और सड़कों पर हींग और मसाले बेचने वाला, ऊँची कद काठी वाला और रौबदार सा दिखने वाला एक अनजान अफ़ग़ान पठान।
 
सूखे मेवे, मिनी और काबुलीवाला
आगे बढ़ने से पहले थोड़ा फ़्लैशबैक में चलें तो पाएंगे कि तब के कोलकाता में आकर बसे काबुलीवालों को लोग अच्छी नज़र से नहीं देखते थे। ये काबुलीवाले इतने बदनाम थे कि लोग अपने बच्चों को ये कहकर डराया करते थे कि काबुलीवाला बच्चों को अपनी बोरी में भरकर ले जाएगा और काबुल में बेच देगा।
 
 
अंग्रेज़ों और अफ़ग़ानों के बीच 19वीं सदी में जब एंग्लो-अफ़ग़ान युद्ध हुआ, तब बड़ी संख्या में अफ़ग़ान भारत आने लगे। ख़ासकर कोलकाता जो अंग्रेज़ों की राजधानी थी। वैसे बहुत सारे लोग काबुल की बजाय ग़ज़नी, पटकिया और पकटिका जैसे अफ़ग़ानिस्तान के इलाक़ों से आते थे, पर न मालूम कैसे इन्हें सब काबुलीवाला कहने लगे। ये लोग इत्र, सूखे मेवे और मसाले बेचने आते थे। कुछ कोलकाता में ही बस जाते तो कुछ कारोबार करके लौट जाते।
 
 
दो अनजान लोगों का रिश्ता
एक ऐसे ही अफ़ग़ान पठान की कहानी टैगोर ने लिखी। रहमान ख़ान यानी बलराज साहनी जिसकी दोस्ती होती है पाँच साल की मिनी (बेबी सोनू) से। मिनी की माँ भले ही उसे काबुलीवाले के बारे में डरावनी कहानियाँ सुनाती है लेकिन जब काबुलीवाला रोज़ मिनी को हाथ में सूखे मेवे, किशमिश देता है और बातूनी मिनी को कहानियाँ सुनाता है, तो मिनी और काबुलीवाले के बीच एक प्यारा सा रिश्ता बन जाता है।
 
 
काबुलीवाले को मिनी में अपनी बेटी अमीना का अक्स दिखता है जिस अमीना के नन्हें हाथों के निशां वो कागज़ के एक टुकड़े पर साथ ले आया है। वहीं काबुलीवाले में मिनी को कोई ऐसा मिलता है जो तसल्ली से उसके नन्हें मन की छोटी-बड़ी बतकहियां सुनता है, उसे वक़्त देता है। इस रिश्ते को शायद वे दोनों ही समझते थे या कुछ हद तक तक मिनी के पिता।
 
काबुलीवालों की ख़ान कोठी
लेकिन किस्मत ऐसा मोड़ लेती है कि काबुलीवाला और मिनी अलग हो जाते हैं। मिनी की याद दिल में लिए 10 साल बाद काबुलीवाला उससे मिलने आता है तो वो उसकी शादी का दिन था। लेकिन बड़ी हो चुकी मिनी के मन से काबुलीवाले की यादें धुँधली हो चुकी होती हैं। ऐसे में मिनी क्या करती है?
 
 
हर जज़्बात को संवाद के बजाए अपनी आँखों, हाव-भाव से इज़हार करने वाले बलराज साहनी की एक्टिंग कमाल की है। और साथ ही छोटी बच्ची का रोल करने वाली बेबी सोनू। ये टैगोर की कहानी ही थी जिसने कोलकाता वालों के दिलों में काबुलीवालों की छवि बदल कर रख दी थी। कोई आधिकारिक आँकड़े तो नहीं है लेकिन आज भी क़रीब 5,000 काबुलीवाले कोलकाता के टीटागढ़ जैसे इलाक़ों में रहते हैं।
 
 
भारत या अफ़ग़ानिस्तान?
खान कोठी कहे जाने वाले इनके घरों में आज भी अफ़ग़ान संस्कृति की झलक मिल जाती है। कालीन पर बिछा दस्तरख़्वान, पारंपरिक अटान नृत्य, कानों में घुलती पश्तो बोली। ये सब आज भी कोलकाता की इन खान कोठियों में ज़िंदा है। पहले तो ये काबुलीवाले अफ़ग़ानिस्तान आया-जाया करते थे। लेकिन भारत के बंटवारे की मार इन पर भी पड़ी।
 
 
पाकिस्तान से होते हुए जाना मुश्किल हो गया और कई लोग कभी वतन लौट ही नहीं सके। कई काबुलीवालों ने भारतीय औरतों से ही शादी कर ली तो कईयों के परिवार अफ़ग़ानिस्तान में पीछे छूट गए। हाँ अगर वहाँ का ख़ाना चखने का मन हो तो कोलकाता में इन लोगों ने कई रेस्तरां खोल रखे हैं।
 
 
क्या काबुलीवाले को मिली होगी अपनी बेटी?
लेकन इन काबुलीवालों की ज़िंदगी की एक अजीब सी ट्रैजिडी है कि बरसों से यहीं बसे या यहीं जन्मे होने के बावजूद ये भारतीय नहीं हैं। न आधर कार्ड है, न पासपोर्ट। अफ़ग़ानिस्तान को ये काबुलीवाले आज भी अपना वतन मानते हैं। और भारत को मुल्क़, और दोनों से ही इन्हें मोहब्बत है।
 
 
और अगर इनकी संस्कृति की झलक देखनी हो तो कोलकाता के विक्टोरिया मेमोरियल चले जाइए। ये लोग छुट्टी के दिन आज भी पारंपरिक अंडा-कुश्ती करते, पतंगबाज़ी करते और अपना पारंपंरिक नृत्य करते मिल जाएँगे। वैसे जब भी बलराज साहनी वाली काबुलीवाला फ़िल्म देखती हूँ तो अकसर सोचती हूँ कि क्या 10 साल बाद जब काबुलीवाला वापस अपने वतन लौटा होगा तो उसकी अपनी बेटी उसे पहचान पाई होगी?
 
 
वो अपनी बेटी को ढूँढ भी पाया होगा? या फिर क़ागज़ के टुकड़े पर बने बेटी के हाथों के निशां ही काबुलीवाले के पास एक आख़िरी निशानी के तौर पर रह गए होंगे।
 

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