किसानों और सरकार के बीच भरोसा क्यों नहीं कायम हो पा रहा है?

BBC Hindi
बुधवार, 2 दिसंबर 2020 (12:07 IST)
ज़ुबैर अहमद, बीबीसी संवाददाता
केंद्र सरकार और नए कृषि क़ानूनों का विरोध कर रहे किसानों के प्रतिनिधियों के बीच बातचीत की पहल भले ही देर से की गई हो लेकिन सहमति इस बात पर ज़रूर है कि बातचीत ही एक सही विकल्प है।
 
बातचीत के दौरान दोनों पक्षों को एक दूसरे के तर्क को मीडिया के बजाए सीधे आमने-सामने बैठकर सुनने का अवसर मिलेगा। मंगलवार को हुई बातचीत में तीन बजे दोपहर को पंजाब के 32 किसानों के प्रतिनिधि शामिल थे और सात बजे शाम वाली बातचीत में हरियाणा, उत्तर प्रदेश और दूसरे सभी राज्यों के प्रतिनिधि शामिल थे।
 
सरकार ने किसानों की समस्या सुनने और उसका हल खोजने के लिए कमिटी बनाने की पेशकश की, जिसे किसानों ने ठुकरा दिया। ये मीटिंग बेनतीजा ख़त्म हुई। अब सरकार और किसानों के प्रतिनिधि गुरुवार को 12 बजे फिर मुलाक़ात करने वाले हैं।
 
बातचीत तो ठीक है, लेकिन कई लोगों का मानना है कि सरकार और किसानों के बीच विश्वास की सख्त कमी है। दोनों को एक दूसरे की बातों और तर्क पर ज़रा भी यक़ीन नहीं है और यहाँ तक कि केंद्र सरकार और उन राज्य सरकारों के बीच भी विश्वास की कमी पाई जाती है जो इन तीन नए क़ानूनों से ख़ुश नहीं हैं।
 
मुंबई स्थित आर्थिक विशेषज्ञ विवेक कौल कहते हैं केंद्र सरकार को क़ानून लाने से पहले किसानों और राज्य सरकारों को इसके लिए राज़ी करना चाहिए था।
 
उनके अनुसार कृषि क्षेत्र में सुधार की ज़रूरत है इससे किसी को इंकार नहीं लेकिन मोदी सरकार ने ज़मीनी सच का पूरी तरह से अध्ययन नहीं किया और संसद में जल्दबाज़ी में बिल पारित करा लिया।
 
वो कहते हैं, "हमेशा की तरह, केंद्र सरकार तफ़सील में नहीं गई। उसने सिर्फ़ इस बारे में बात की कि किसान कैसे इस क़ानून से लाभ उठाएंगे और अपनी बात को आक्रामक तरीके से रखते रहे। लेकिन किसानों को पेश आने वाली परेशानियों और क़ानून को लागू करने में दिक़्क़तों के बारे में कोई बात नहीं की।"
 
उन्होंने बीबीसी से कहा, "विश्वास की कमी से अधिक, सरकार ने ऑपरेट करने का अपना एक तरीका चुना है। इसने एक फ़ैसला ले लिया है और इसे लागू करने पर तुली है। बातचीत और चर्चा करना इस सरकार की उपलब्धि नहीं है।"
 
वो सरकार के इस फैसले की नोटबंदी और जीएसटी जैसे जल्दबाज़ी में लिए गए फैसलों से तुलना करते हैं।
 
आख़िर सरकार पर किसानों को भरोसा क्यों नहीं है?
महाराष्ट्र के किसान दिनेश कुलकर्णी के अनुसार उनकी संस्था भारतीय किसान संघ और सरकार के बीच बातचीत जून में शुरू हुई थी। आरएसएस से जुड़े भारतीय किसान संघ का पक्ष ये है कि नए क़ानून में सब कुछ किसानों के पक्ष में नहीं है लेकिन इसके विरोध में सड़कों पर उतर जाने के बजाए सरकार से बातचीत जारी रखनी चाहिए।
 
दिनेश कुलकर्णी कहते हैं, "हमारे उत्तर भारत के कई किसान भाइयों को सरकार पर विश्वास नहीं है। दोनों के बीच ग़लतफ़हमी है जिसका समाधान बातचीत से ही हो सकता है।"
 
लेकिन पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुज़फ़्फरनगर शहर में भारतीय किसान संघ के प्रवक्ता धर्मेंद्र मलिक कहते हैं, "किसानों को सरकार पर भरोसे का मुद्दा है ही नहीं। मुद्दा ये है कि ये तीनों नए क़ानून किसान विरोधी हैं। इसमें सरकार की बात या मोदी के आश्वासन पर भरोसा न करने वाली कोई बात ही नहीं है।"
 
उनका कहना था कि क़ानून लाने से पहले सरकार को हर तरह के किसानों, उनकी संस्थाओं, कृषि क्षेत्र के विशेषज्ञों और किसान नेताओं से बातचीत करनी चाहिए थी और ज़मीनी सच को नज़र में रखना चाहिए था।
 
धर्मेंद्र मलिक कहते हैं, "सरकार ने केवल बीजेपी के समर्थक किसानों से ही बातचीत की और सोचा उन्होंने सबसे बातचीत कर ली है। अब हमारे कड़े विरोध से उन्हें हमारी ताक़त का अंदाज़ा हुआ है।"
 
प्रधानमंत्री की बात पर भी भरोसा नहीं?
उधर सरकार किसानों को अपना तर्क मनवाने के लिए मीडिया और सोशल मीडिया का आक्रामक तरीके से इस्तेमाल करते हुए दिख रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बार-बार कहा है कि ये नए क़ानून किसानों की आय को बढ़ाने में मदद करेंगे।
 
सरकार का एक लक्ष्य है कि 2022 तक किसानों की आय दुगनी हो जाए। सरकार का नया क़दम इसी उद्देश्य को हासिल करने का एक प्रयास बताया जाता है।
 
सरकार के कई विभाग भी प्रधानमंत्री के पैग़ाम को आगे बढ़ाने और सरकार की 'अच्छी नीयत' के प्रचार में लगे हुए हैं।
 
नीति आयोग के कृषि समिति के एक सदस्य रमेश चंद ने दो दिन पहले पीटीआई न्यूज़ एजेंसी से एक बातचीत में कहा कि किसानों ने नए कृषि क़ानूनों को पूरी तरह से या ठीक से नहीं समझा है। उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि इन नए क़ानून से किसानों की आमदनी बढ़ेगी।
 
केंद्र सरकार और कुछ राज्य सरकारों के बीच भी भरोसे की कमी देखी गई है।
 
पिछले महीने, 180 से अधिक किसान समूहों पर आधारित किसान सभा, राष्ट्रीय किसान महासंघ (आरकेएम) ने सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों को पत्र लिख कर मांग की थी कि वो तीनों कृषि सुधार क़ानूनों का विरोध करें। आरकेएम ने राज्य सरकारों से कृषि संबंधी मुद्दों पर मोदी सरकार द्वारा कानून बनाने पर राज्यों के अधिकारों का उल्लंघन करने के कारण केंद्र के ख़िलाफ़ सुप्रीम कोर्ट में मामला उठाने की मांग की।
 
खुद केंद्र में बीजेपी के नेतृत्व वाले गठबंधन एनडीए में शामिल अकाली दल अपनी ही सरकार पर भरोसा न करके गठबंधन से अलग हो गया।
 
राजस्थान में बीजेपी की एक और समर्थक राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी के सांसद हनुमान बेनीवाल ने एनडीए छोड़ने की धमकी देते हुए कहा है, "आरएलपी एनडीए का एक घटक दल है, लेकिन इसकी ताकत किसान और सैनिक हैं। अगर मोदी सरकार कोई त्वरित कार्रवाई नहीं करती है, तो मुझे एनडीए के सहयोगी होने पर विचार करना पड़ सकता है।"
 
उन्होंने एक ट्वीट किया, "श्री अमित शाह जी,देश में चल रहे किसान आंदोलन की भावना को देखते हुए हाल ही में कृषि से संबंधित लाए गए तीन बिलों को तत्काल वापस लिया जाए और स्वामीनाथन आयोग की संपूर्ण सिफ़ारिशों को लागू करें व किसानों को दिल्ली में त्वरित वार्ता के लिए उनकी मंशा के अनुरूप उचित स्थान दिया जाए!"
 
विवेक कौल कहते हैं कि इसलिए "इस मुद्दे पर केंद्र सरकार और राज्य सरकारों के बीच संवाद बहुत महत्वपूर्ण है।"
 
किसानों को सरकार की किन बातों पर भरोसा नहीं?
किसान चाहते हैं कि सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को जारी रखे। धर्मेंद्र मलिक कहते हैं कि नए क़ानून में संशोधन करके सरकार ये निश्चित करे कि ये प्रावधान इसमें शामिल हो।
 
मोदी ने आश्वसन दिया है कि ये जारी रहेगा लेकिन किसान चाहते हैं कि क़ानून में इसकी गारंटी दी जाए। पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में चावल और गेहूं की सबसे बड़ी ख़रीदार सरकार खुद है।
 
पंजाब में 90 प्रतिशत चावल और गेहूं किसानों से सरकार खरीदती है। पंजाब और हरियाणा के किसानों को डर इस बात का है कि सरकारी लाइसेंस वाली मंडियों यानी एपीएमसी (कृषि उपज मंडी समिति) के अंतर्गत जो वो उनके उत्पादन खरीदती हैं वो नए क़ानून के तहत नहीं खरीदेगी। उन्हें इस बात का भी डर है कि सरकार एमएसपी को भी ख़त्म कर देगी।
 
लेकिन विवेक कौल के अनुसार सरकार के लिए एक बार में ऐसा करना आसान नहीं होगा। वो कहते हैं, "सरकार के लिए संभव ये है कि किसानों से अपनी ख़रीद कम कर दे, ताकि भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) को ज़रूरत से ज़्यादा उत्पाद को स्टॉक में रखने की ज़रूरत न पड़े।"
 
उनके अनुसार एमएसपी और सरकार द्वारा खरीदने की प्रक्रिया सिक्के का एक पहलू भर है जिसका संबंध सप्लाई से है। सिक्के का दूसरा पहलू मांग से जुड़ा है। सरकार उत्पाद को रियायती दर पर बेचती है जिसके कारण मांग में कमी नहीं आती। निजी व्यापारी रियायती दर पर क्यों बेचेगा।
 
धर्मेन्द्र मलिक कहते हैं कि किसानों की मांग ये है कि कृषि उपज मंडी समिति के बाहर भी निजी व्यापारियों पर उसी तरह से टैक्स लगाया जाए जैसे कि इसके अंदर लगाया जाता है। नए क़ानून में ये प्रावधान नहीं है।
 
किसानों को नए क़ानून में दूसरी बड़ी आपत्ति 'कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग' या 'ट्रेड मार्किट' के शामिल किए जाने से है। किसान इसका विरोध इसलिए कर रहे हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि 'अंबानी और अडानी जैसे उद्योगपतियों को कृषि क्षेत्र में एंट्री का ये खुला न्यौता है।'
 
मलिक कहते हैं कि उद्योगपतियों के लिए मैदान साफ़ किया जा रहा है। सरकार का अगला क़दम उन्हीं के लिए होगा।
 
सरकार के अनुसार इससे किसानों की आय में इज़ाफ़ा होगा और उन्हें बिचौलियों के शोषण से बचाया जा सकेगा। लेकिन किसानों को उन पर भरोसा नहीं।
 
विवेक कौल कहते हैं, "इस बात की संभावना कम है कि बड़े उद्योगपति और कॉर्पोरेट की दुनिया की बड़ी कंपनियां राज्य सरकार के सहयोग के बगैर कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग कर सकेंगे या ट्रेड मार्किट स्थापित कर सकेंगे। छोटे किसानों से सीधा संपर्क करना उनके लिए असंभव होगा।"
 
तो अब जबकि किसानों से सरकार बातचीत करने लगी है तो एक-दूसरे पर भरोसा स्थापित हो सकेगा?
 
धर्मेंद्र मलिक कहते हैं मंगलवार को बातचीत का पहला दौर संपन्न हुआ, अभी कई राउंड की बातचीत हो सकती है।
 
"मोदी जी दबाव में हैं और उन्हें हमारी मांग पूरी करनी ही होगी।" दूसरी तरफ़ प्रधानमंत्री मोदी ने सोमवार को वाराणसी में नए कृषि क़ानून के फायदे एक बार फिर गिनाए और ऐसा कोई संकेत नहीं दिया कि वो किसानों की मांग स्वीकार कर लेंगे। सब की निगाहें अब आगे की बातचीत पर टिकी हैं।
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