- दिनेश उप्रेती
शेयर बाज़ार में एक कहावत है कि यहां हर किसी का वक़्त आता है। कभी बाज़ी तेज़डियों (बुल रन) के हाथ लगती है तो कभी शिकंजा मंदड़ियों (बीयर रन) का कसा रहता है। ये दौर अमूमन पाँच से सात साल का रहता है। यानी शेयरों से कमाई हर कोई कर सकता है, बशर्ते वो 'अपने वक्त' के हिसाब से बाज़ी लगा रहा हो।
यही कहावत कच्चे तेल (क्रूड ऑयल) की कीमतों पर भी लागू होती है, कमोडिटी (सोना-चांदी) और प्रॉपर्टी बाज़ार को लेकर भी ऐसी ही कहावतें प्रचलन में हैं। साल 2014 में जब नरेंद्र मोदी सत्ता में आए थे तो सीटें तो उनकी झोली में भर-भरकर आई ही थी, आर्थिक हालात भी उनके पक्ष में झुके थे। कच्चे तेल की कीमतों में गिरावट का दौर था।
सिर्फ़ छह महीने पहले ही 6 जनवरी 2014 को कच्चा तेल 112 डॉलर प्रति बैरल पर था और इधर मोदी का चुनाव प्रचार भी ज़ोरों पर था। उनकी चुनावी रैलियों में महंगाई से लेकर पेट्रोल के दाम छाये रहते थे।
मोदी का किस्मत कनेक्शन
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दिल्ली में एक रैली के दौरान खुद को देश के लिए 'किस्मत वाला' बताया था। नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के एक साल से भी कम समय में कच्चे तेल की कीमत 112 डॉलर प्रति बैरल से 53 डॉलर प्रति बैरल हो गई थी। बड़े स्तर पर सोशल सेक्टर में निवेश के लिए बेकरार और राजकोषीय घाटे से जूझ रही सरकार के लिए यह किसी तोहफ़े से कम नहीं था।
विपक्ष भी इस बात को जानता था कि 90 फ़ीसदी से अधिक तेल इंपोर्ट करने वाले देश को अगर आधी कीमत पर तेल मिलने लगे तो सरकारी खजाने के लिए कितनी राहत की बात है। शायद यही वजह थी कि विपक्ष भी कहने लगा कि ऐसा मोदी सरकार की नीतियों की वजह से नहीं हुआ, बल्कि ये मोदी की 'किस्मत' है।
2015 में दिल्ली में हुई एक चुनावी रैली के दौरान मोदी ने विपक्षी पार्टियों को जवाब देते हुए कहा था, "ठीक है, मान लेते हैं कि मैं सौभाग्यशाली हूँ, लेकिन लोगों ने पैसा बचाया या नहीं? यदि मोदी की किस्मत से लोगों का फ़ायदा हो रहा है, इससे ज्यादा सौभाग्य की बात क्या हो सकती है। यदि मेरी किस्मत की वजह से पेट्रोल और डीज़ल के दाम कम होते हैं और लोगों को इसका फ़ायदा होता है तो किसी अनलकी को लाने की क्या ज़रूरत है?"
देखते ही देखते जनवरी 2016 तक कच्चे तेल के दाम 34 डॉलर तक लुढ़क गए। लेकिन यहाँ से फिर कच्चे तेल का बाज़ार पलटने लगा और धीरे-धीरे ही सही, लेकिन मोदी सरकार की मुश्किलें भी बढ़ने लगी और अब ये 80 डॉलर प्रति बैरल के भाव पर कामकाज कर रहा है।
मोदी सरकार ने कच्चे तेल की गिरावट की रैली का खूब फ़ायदा उठाया। जिस तरह अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल के भाव थे, भारत में पेट्रोल पंपों पर उसका ख़ास असर नहीं था और सरकारी खजाना भी लगातार भरता गया। इस दौरान, पेट्रोल-डीज़ल पर 9 बार उत्पाद कर (एक्साइज़ ड्यूटी) बढ़ाया गया। नवंबर 2014 से जनवरी 2016 के बीच पेट्रोल पर ये बढ़ोतरी 11 रुपये 77 पैसे और डीज़ल पर 13 रुपये 47 पैसे थे। जबकि कमी के नाम पर मोदी सरकार ने पेट्रोल, डीज़ल कीमतों में अक्टूबर 2016 में दो रुपये प्रति लीटर की एकमुश्त कटौती की थी।
ब्लूमबर्ग की एक रिपोर्ट के मुताबिक पेट्रोलियम उत्पादों की बिक्री की केंद्र सरकार को मिलने वाला राजस्व लगभग तीन गुना हो गया है। लेकिन अब यही 'तेल का खेल' मोदी सरकार के लिए सिरदर्द साबित हो सकता है।
कहाँ-कहाँ परेशानियां
पेट्रोल, डीज़ल के मुद्दे पर परेशानियां कई मोर्चों से हैं। आर्थिक मामलों के जानकार भरत झुनझुनवाला बताते हैं कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सीरिया, ईरान, वेनेज़ुएला में राजनीतिक अस्थिरता तो है ही, कच्चे तेल के 75 डॉलर प्रति बैरल पर बने रहने की असल वजह है सऊदी अरब।
झुनझुनवाला कहते हैं, "सऊदी अरब अपनी तेल कंपनी अरामको की शेयर बाज़ार में बेहतर लिस्टिंग चाहता है। अरामको दुनिया की सबसे बड़ी तेल कंपनी है। कुछ मीडिया ख़बरों में तो यहाँ तक कहा गया है कि सऊदी अरब कच्चे तेल के दाम 100 डॉलर प्रति बैरल तक ले जाना चाहता है।" हालाँकि अभी अरामको के आईपीओ की कोई तारीख़ तय नहीं की गई है, लेकिन अटकलों का बाज़ार गर्म है।
दूसरा, सऊदी अरब मध्य-पूर्व में अस्थिरता का फ़ायदा उठाना चाहता है। दिल्ली स्थित एक ब्रोकरेज फर्म में रिसर्च हेड आसिफ़ इक़बाल बताते हैं, "अमरीका ने ईरान और वेनेज़ुएला पर कड़े आर्थिक प्रतिबंध लगाए हैं और इसका फ़ायदा सऊदी अरब उठाना चाहता है। सऊदी अरब जानता है कि चीन और भारत से तेल की मांग में किसी तरह कमी नहीं है, इसलिए वो तेल की नियंत्रित आपूर्ति कर इस मौके को भुनाना चाहता है।"
भारत सरकार भी सऊदी अरब की तेल की ताक़त से अच्छी तरह वाकिफ़ है। केंद्रीय पेट्रोलियम मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने हाल ही में तेल निर्यात करने वाले देशों के संगठन ओपेक के अहम सदस्य सऊदी अरब से आग्रह किया कि वो कच्चे तेल की कीमतों में कमी लाए, क्योंकि इसका भारतीय ग्राहकों और अर्थव्यवस्था पर बुरा असर पड़ रहा है।
धर्मेंद्र प्रधान तेल कीमतों पर सियासत से अच्छी तरह वाकिफ़ होंगे। शायद यही वजह थी कि तेल कीमतों में उबाल के छीटें चुनावी नतीजों पर न दिखें, कर्नाटक चुनावों के दौरान 19 दिनों तक पेट्रोल और डीज़ल कीमतें स्थिर रहीं। वो भी तब जब तेल कंपनियां और मोदी सरकार ये दावा करती रही है कि पेट्रोल और डीज़ल की कीमतें सरकारी नियंत्रण से बाहर हैं और अंतरराष्ट्रीय भाव के आधार पर ही रोज़ाना इनकी कीम़त तय होती है।
क्या पटरी से उतर जाएगा मोदी का बजट?
मोदी सरकार ने एक फ़रवरी को पेश किए अपने आख़िरी पूर्ण बजट में ग्रामीण इलाक़ों, स्वास्थ्य और किसानों के लिए बड़ी घोषणाएं की थी। कई और घोषणाओं के अलावा राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा के तहत 50 करोड़ लोगों को 5 लाख रुपये तक के स्वास्थ्य बीमा के तहत लाने की बात कही गई।
लेकिन कच्चे तेल के कीमतों से मोदी सरकार की इन घोषणाओं की चमक फीकी पड़ सकती है। आर्थिक विश्लेषक का कहना है कि पेट्रोल-डीज़ल की कीमतें बढ़ने और डॉलर के मुक़ाबले रुपये के लगातार लुढ़कने से खजाने पर बोझ पड़ेगा और राजकोषीय घाटा बढ़ेगा।
अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसी मूडीज़ की हाल ही में प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत एक बार फिर ईंधन सब्सिडी की गिरफ़्त में आ सकता है और मौजूदा वित्त वर्ष 2018-19 में फ्यूल सब्सिडी 53,000 करोड़ रुपये हो सकती है। अभी सरकार की योजना इस बोझ को ओएनजीसी और ऑयल इंडिया पर डालने की है। उन्हें कच्चे तेल पर सब्सिडी देने को कहा जा सकता है, लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से इसका असर सरकारी खजाने पर ही पड़ने वाला है।