जिन्होंने पाकिस्तान के चार टैंक उड़ाए

Webdunia
शनिवार, 17 दिसंबर 2016 (13:14 IST)
-रेहान फ़ज़ल
थोड़ा सा अलग सा नाम था उनके सैंचूरियन टैंक का... फ़ामागुस्ता- साइप्रस के एक बंदरगाह के नाम पर। टैंक के अंदर तंग सी जगह में बैठे सेकेंड लेफ़्टिनेंट अरुण खेत्रपाल अपने सामने छितरे पड़े, जलते हुए कुछ पाकिस्तानी टैंकों को निहार रहे हैं। उनमें से ज़्यादातर आगे बढ़ने के काबिल नहीं हैं।
अरुण के खुद के टैंक में आग लगी हुई है, लेकिन भी उनकी फ़ायर करने की क्षमता बरक़रार है। खेत्रपाल के गले की नस तेज़ी से फड़क रही है। वो सोच रहे हैं कि अगर वो 75 गज़ की दूरी पर आते हुए टैंक पर सही निशाना लगा लेते हैं तो उनके द्वारा ध्वस्त किए हुए टैंकों की संख्या पांच हो जाएगी।
 
उन्होंने अपना रेडियो सेट ऑफ़ कर दिया है क्योंकि पीछे से उनका कमांडर उन्हें निर्देश दे रहा है, 'अरुण वापस लौटो'। तभी अचानक सीटी की आवाज़ करता हुआ एक गोला खेत्रपाल के टैंक के कपोला को भेदता हुआ निकल जाता है। उस सेकेंड के सौंवे हिस्से में उन्हें ये अहसास नहीं होता कि उसने उनके सीने को फाड़ दिया है।
 
ख़ून से लथपथ अरुण खेत्रपाल अपने गनर नत्थूसिंह से फुसफुसा कर सिर्फ ये कह पाते हैं, 'मैं बाहर नहीं आ पाउंगा।' नत्थू की पूरी कोशिश है कि वो अरुण को जलते टैंक से बाहर निकाल पाएं। कुछ ही सेकेंडों में अरुण का शरीर नीचे की तरफ़ लुढ़कता है। उनके पेट का ज़ख्म इतना गहरा है कि अरुण की आंतें बाहर निकल आई हैं।
 
समय है दस बज कर पंद्रह मिनट। तारीख 16 दिसंबर, 1971... अपनी अंतिम सांस लेते हुए अरुण खेत्रपाल की उम्र है सिर्फ़ 21 वर्ष। छह फ़िट दो इंच लंबे अरुण क्षेत्रपाल एक सैनिक परिवार से आते थे। उनके दादा पहले विश्व युद्ध और पिता दूसरे विश्व युद्ध और 1965 की लड़ाई में लड़ चुके थे। उनमें बचपन से ही नेतृत्व और ज़िम्मेदारी के गुण थे।
 
अरुण के छोटे भाई मुकेश खेत्रपाल बताते हैं, "वो मुझसे एक साल बड़ा था। हम दिल्ली के सेंट कोलंबस स्कूल में पढ़ा करते थे और कार पूल से स्कूल जाया करते थे। एक दिन हमारी कार हमें लेने नहीं आई। मैं उस समय छह साल का था। अरुण ने मुझसे कहा कि हम लोग पैदल घर जाएंगे। गोल डाकखाने से सांगली मेस के ढ़ाई मील के रास्ते को हम दोनों भाइयों ने पैदल ही तय किया।

थोड़ी देर मे मैं थक गया। छोटी सी उम्र थी हमारी। मैं रोने लगा। अरुण मुझे दिलासा देते रहे... वो मुझे नहीं दिखाना चाहते थे कि वो भी उतने ही परेशान हैं। वो मुझसे कहते रहे.... बस थोड़ी ही दूर और। फिर उन्होंने मेरा भारी बैग अपने कंधों पर ले लिया। जब हम घर पहुंचे तो अरुण माँ से लिपटकर बहुत ज़ोर से रोए। लेकिन उस पूरे रास्ते में उन्होंने मुझे ये अहसास नहीं होने दिया कि वो भी कितने परेशान हैं। सात ही साल के थे वो।" यही नहीं अरुण में दया और करुणा का भाव भी कूट कूट कर भरा हुआ था।
 
अरुण खेत्रपाल पर किताब लिखने वाली रचना बिष्ट बताती हैं, "एक दिन शिलांग में अरुण बिना स्वेटर पहने स्कूल से वापस आए। जब उनकी माँ ने पूछा कि स्वेटर कहाँ गया तो अरुण ने झूठ बोला कि वो खो गया। बाद में पता चला कि वो स्वेटर उन्होंने सड़क पर बैठे एक ग़रीब बच्चे को दे दिया था। बाद में वो बच्चा आईआईटी दिल्ली में अरुण के छोटे भाई मुकेश से मिला। उसे याद था कि किस तरह अरुण ने अपना स्वेटर उतार कर उसे दे दिया था।"
 
1971 में युद्ध के बादल मंडराते ही अहमदनगर में यंग ऑफ़िसर्स कोर्स कर रहे सैनिक अफ़सरों को बीच कोर्स से बुलाकर उनकी रेजिमेंट में भेजने का फ़ैसला लिया गया था। अरुण खेत्रपाल भी उनमें से एक थे। वो और उनके एक साथी सेकेंड लेफ़्टिनेंट ब्रिजेंद्र सिंह ट्रेन में बिना रिज़र्वेशन कराए दिल्ली आए थे। दिल्ली में अरुण के पास दूसरी ट्रेन पकड़ने के लिए थोड़ा वक्त था।
 
उन्होंने ब्रेक वैन से अपनी मोटर साइकिल उतरवाई और अपने घर पहुंच गए। मुकेश याद करते हैँ, 'अचानक घर की घंटी बजी और हमने देखा कि अरुण अपनी मोटर साइकिल के साथ बाहर खड़ा है। शाम को पंजाब मेल से वो फ़्रंट के लिए रवाना हो गया। जब वो अपना सामान बाँध रहा था तो हमने नोटिस किया कि उसमे एक नीला सूट और गोल्फ़ स्टिक भी थी। मेरे पिताजी ने पूछा तुम वहाँ ये सब क्यों ले कर जा रहे हो? अरुण का जवाब था, मैं लाहौर में गोल्फ़ खेलूंगा। और जीत के बाद डिनर पार्टी तो होगी ही... उसके लिए ये सूट ले जा रहा हूँ।'
 
जैसे ही पाकिस्तानियों का जवाबी हमला शुरू हुआ... पढ़ें अगले पेज पर....

जब अरुण मोर्चे पर पहुंचे तो उनके कमांडर हनूत सिंह ने उन्हें लड़ाई में शामिल करने से मना कर दिया क्योंकि वो यंग ऑफिसर्स कोर्स पूरा नहीं कर पाए थे। अरुण ने उन्हें यह कहकर उन्हें मनाया कि अगर वो इस युद्ध में भाग नहीं ले पाए तो शायद ही उन्हें अपने जीवन में युद्ध में शामिल होने का मौका मिल पाएगा।
 
बहुत मुश्किल से कर्नल हनूत सिंह उन्हें युद्ध में आगे भेजने पर राज़ी हुए। उन्होंने उनके साथ वरिष्ठ सूबेदार को लगाया और अरुण को निर्देश दिए कि वो हर मामले में उनकी सलाह ले क्योंकि उनको उनसे ज़्यादा अनुभव था। लेकिन एक्शन शुरू होने के एक घंटे के अंदर ही उस सूबेदार के सिर में गोला लगा और वो मारा गया। अब अरुण बिल्कुल अकेले थे।
16 दिसंबर को तड़के पूना हॉर्स के भीमकाय टैंक एक लाइन बनाते हुए आगे बढ़ रहे थे। हर टैंक अगले टैंक का अंदाज़ा उसके पीछे जल रही सिगरेट की टिप के बराबर लाल बत्ती से लगा रहा था। वो बत्ती भी ज़मीन की तरफ़ केंद्रित थी ताकि पाकिस्तानी टैंकों और युद्धक विमानों को उनका आभास न मिले।
 
निर्देश साफ़ थे। उनको 1500 वर्ग गज़ के इलाके को पार करना था जिसमें बारूदी सुरंगें बिछी हुई थीं। थोड़ी देर पहले ही 16 मद्रास के कमांडिंग ऑफ़िसर ने ख़बर भिजवाई थी कि एक बड़े हमले के लिए पाकिस्तानी टैंक जमा हो रहे हैं। अगर भारतीय टैंक समय पर नहीं पहुंचे तो उन्हें रोकना मुश्किल हो जाएगा। कर्नल एसएस चीमा को वो दृश्य अभी भी याद है जैसे ये कल की ही बात हो।
 
चीमा कहते हैं, "जैसे ही पाकिस्तानियों ने जवाबी हमला शुरू किया 17 हॉर्स के बी स्कवार्डन के कमांडर ने मांग की कि पीछे से और टैंक भेजे जांए। कैप्टन मल्होत्रा, लेफ़्टिनेंट अहलावत और सेकेंड लेफ़्टिनेंट अरुण खेत्रपाल को बी स्कवार्डन की मदद के लिए भेजा गया। मिनटों में उन्होंने पाकिस्तान के सात टैंक उड़ा दिए। तभी अहलावत के टैंक पर गोला लगा और वो लपटों में घिर गया। उसके तुरंत बाद खेत्रपाल के टैंक पर गोला लगा।
 
कैप्टन मल्होत्रा ने हुक्म दिया, टैंक को छोड़ो और बाहर निकलो। लेकिन खेत्रपाल पर इसका कोई असर नहीं हुआ। वो पीछे हटते पाकिस्तानी टैंक का पीछा करने लगे और उसको बरबाद करने में सफल भी हो गए। तभी पाकिस्तान की तरफ़ से कुछ और टैंक मैदान में आ गए। मल्होत्रा बार बार उनसे कह रहे थे अरुण बाहर आओ। टैंक को छोड़ो। अरुण का जवाब था मेरी गन अभी भी काम कर रही है। आई विल गेट दोज़....' इसके बाद खेत्रपाल रेडियो पर नहीं आए। उन्होंने जानबूझ कर रेडियो सेट बंद कर दिया। इस बीच मल्होत्रा के टैंक ने भी काम करना बंद कर दिया। अरुण को लगा कि अब उन पर ही हमले को रोकने की ज़िम्मेदारी है।"
 
इसके बाद अरुण ने एक के बाद एक चार पाकिस्तानी टैंक ध्वस्त किए। कुछ ही गज़ों की दूरी से ये लड़ाई देख रहे कर्नल एसएस चीमा बताते हैं, 'जिस आखिरी टैंक पर अरुण ने निशाना लगाया वो पाकिस्तान के स्कवार्डन कमांडर का टैंक था। खेत्रपाल ने उस टैंक पर निशाना लगाया और उस टैंक ने भी खेत्रपाल के टैंक पर फ़ायर किया। पाकिस्तानी कमांडर तो कूद कर बच गए लेकिन अरुण अपने टैंक से बाहर नहीं निकल पाए और वहीं उन्होंने दम तोड़ दिया।'
 
एक भी पाकिस्तानी टैंक अरुण खेत्रपाल के पार नहीं जा पाया। खेत्रपाल को इस वीरता के लिए भारत का सर्वोच्च वीरता पुरस्कार परमवीर चक्र दिया गया।
 
अरुण के पिता ब्रिगेडियर खेत्रपाल दाढ़ी बना रहे थे कि उनके घर की घंटी बजी। वो थोड़ा रुके और उन्होंने अपनी पत्नी की पदचाप को दरवाज़े तक जाते सुना। मुकेश कॉलेज जाने की तैयारी कर रहे थे। पिछले कुछ दिनों से उनके कान लगातार रेडियो से चिपके हुए थे। उन्हें पता था कि 16 दिसंबर को बसंतर में ज़बरदस्त टैंक युद्ध हुआ है। अरुण के परिवार ने उस दिन चिंता में खाना नहीं खाया था। उन्हें पता था कि वहाँ पर अरुण की रेजिमेंट ही लड़ रही है.. लेकिन वो समय बीत चुका था और वो लोग बेसब्री से अरुण का इंतज़ार कर रहे थे। यहाँ तक कि उन्होंने अरुण की मोटर साइकिल की सर्विसिंग करा ली थी और उनके कमरे को साफ़ कर लिया था।
 
जैसे ही मुख्य दरवाज़ा खुला, उन्हें बात करने की आवाज़ सुनाई दी और फिर इससे पहले कि उन्हें कोई चीख़ सुनाई देती, उन्हें उसका अंदाज़ा हो गया। उनके दाढ़ी बनाते हाथ रुक गए। वो तेज़ी से बाहर के दरवाज़े की तरफ़ दौड़े। वहाँ एक पोस्टमैन खड़ा था। उनकी पत्नी माहेश्वरी खेत्रपाल फ़र्श पर पड़ी हुई थीं। उनके कमज़ोर हाथों में एक टेलीग्राम था, जिसमें लिखा था, 'डीपली रिगरेट टु इनफ़ॉर्म यू यॉर सन आई सी 25067, सेकेंड लेफ़्टिनेंट खेत्रपाल रिपोर्टेडली किल्ड इन एक्शन 16 दिसंबर। प्लीज़ एक्सेप्ट सिंसियर कंडोलेंसेज़।'
 
इस घटना के तीस साल बाद अचानक अरुण के पिता ब्रिगेडियर एमएस खेत्रपाल को ज़हन में आया कि वो अपनी जन्म भूमि सरगोधा को देखने पाकिस्तान जाएं। उस समय उनकी उम्र 81 साल थी।
अरुण खेत्रपाल की जांबाजी पर क्या कहा दुश्मन देश के सैन्य अधिकारी ने... पढ़ें गले पेज पर.....

मुकेश बताते हैं, 'जब वो लाहौर पहुंचे तो एक पाकिस्तानी ब्रिगेडियर ने उनका स्वागत किया और उनसे कहा कि वो उनके घर चलें और उनके साथ रहें। उस ब्रिगेडियर और उसके पूरे परिवार ने उनकी इतनी ख़ातिर की कि ब्रिगेडियर खेत्रपाल अभिभूत हो गए। लेकिन उन्हें कहीं लगा कि कोई बात है जो पाकिस्तानी ब्रिगेडियर उनसे कहना चाह रहे हैं।

खेत्रपाल की रवानगी से एक दिन पहले खाना खाने के बाद ब्रिगेडियर नासेर उनके पास आ कर बोले, सर मेरे दिल में एक बात है जो मैं आपसे साझा करना चाहता हूं। मैं कई साल से ये बात आपको बताना चाहता था लेकिन मुझे पता नहीं था कि मैं कैसे आपके पास पहुंचूं। मैं सारी उम्मीद छोड़ चुका था लेकिन तभी भाग्य ने मेरा साथ दिया और आपको हमारा मेहमान बना कर भेज दिया। इस बीच हम दोनों बहुत नज़दीक आ गए है और इसने मेरा काम और मुश्किल बना दिया है।'
'इस बात का संबंध आपके बेटे अरुण खेत्रपाल से है। आपके बेटे को आपके देश का सर्वोच्च वीरता पुरस्कार परमवीर चक्र मिला है। 16 दिसम्बर 1971 को सुबह आपका बेटा और मैं अपने अपने देश के लड़ते हुए आमने सामने थे। मुझे बहुत अफ़सोस के साथ ये बात बतानी पड़ रही है कि आपका बेटा मेरे हाथों ही मारा गया था। लड़ाई के मैदान पर अरुण की हिम्मत अनुकरणीय थी। उसने बिना अपनी हिफाज़त की परवाह किए हुए बहुत बहादुरी से हमारा मुकाबला किया। दोनों तरफ़ बहुत से लोग मारे गए। अंत में और अरुण अकेले बचे थे। हम दोनों ने साथ साथ एक दूसरे पर निशाना लगाया.... मेरा भाग्य था कि मैं बच गया और अरुण को इस दुनिया से जाना पड़ा। बाद में मुझे पता चला कि वो कितना कमउम्र था। मैं आपके बेटे को सेल्यूट करता हूँ और आपको भी सेल्यूट करता हूँ क्योंकि आपकी परवरिश के बिना वो इतना बहादुर शख्स नहीं बन सकता था।'
 
जब ब्रिगेडियर खेत्रपाल वापस भारत लौटे तो उन्हें उनकी और ब्रिगेडियर नासेर की तस्वीर मिली जिसके पीछे लिखा हुआ था-
अरुण खेत्रपाल। शहीद अरुण खेत्रपाल परमवीर चक्र जो 16 दिसंबर, 1971 को 13 लांसर्स के जवाबी हमले के दौरान जीत और असफलता के बीच एक चट्टान की तरह खड़ा रहा, के पिता ब्रिगेडियर खेत्रपाल को अत्यंत सम्मान के साथ।
ख़्वाजा मोहम्मद नासेर
2 मार्च, 2001, लाहौर
16 दिसंबर, 1971 को अरुण खेत्रपाल के साथ टैंक में बैठे रिसालदार मेजर नत्थू सिंह नागौर के एक गाँव में रहते हैं। नत्थू सिंह कहते हैं, "दूसरे लोग अरुण को भूल गए हैं लेकिन मैं उन्हें कभी नहीं भूल सकता। अभी भी खेत्रपाल साब मेरे सपनों में आते हैं। मैं देखता हूँ मेरे चारों तरफ़ टैंक जल रहे हैं। वो मेरे पीछे खड़े हुए हैं और मुझसे कह रहे हैं, ऑन टैंक नत्थू, फ़ायर... फिर मैं फ़ायर करता हूँ। बहुत बहादुर आदमी थे साहब। दूसरे लोग भले ही उन्हें भूल गए हो, लेकिन मैं जब तक ज़िंदा हूँ वो मेरे सपनों में आते रहेंगे। मेरे लिए वो कभी मर नहीं सकते।"
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