अक्षय तृतीया का जैन धर्म से क्या है कनेक्शन, जानें महत्व

जैन धर्म में अक्षय तृतीया का महत्व जानें

WD Feature Desk
सोमवार, 6 मई 2024 (15:13 IST)
HIGHLIGHTS
 
• जैन धर्म में अक्षय तृतीया क्यों हैं खास।
• जैन धर्म में अक्षय तृतीया महत्व।
• प्रथम जैन तीर्थंकर भगवान आदिनाथ और अक्षय तृतीया क्या है का संबंध।
 
भगवान आदिनाथ का सूत्र वाक्य था- 'कृषि करो या ऋषि बनो।'

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Lord aadinath : जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर भगवान आदिनाथ/ ऋषभदेव और अक्षय तृतीया का बहुत गहरा संबंध है। आइए जानते हैं यहां इस दिन के बारे में रोचक जानकारी...
 
जैन पुराणों के अनुसार भगवान आदिनाथ, जिन्हें ऋषभनाथ भी कहा जाता है, वे जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर है। भगवान ऋषभनाथ का जन्म चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की नौवीं तिथि के दिन सूर्योदय के समय हुआ था। वे समस्त कलाओं के ज्ञाता और सरस्वती के स्वामी थे। उन्हें जन्म से ही संपूर्ण शास्त्रों का ज्ञान था। 
 
युवा होने पर ऋषभनाथ का विवाह कच्छ और महाकच्‍छ की दो बहनों यशस्वती/ नंदा और सुनंदा से हुआ। नंदा ने भरत को जन्म दिया, जो आगे चलकर चक्रवर्ती सम्राट बने। जैन धर्मावलंबियों की मान्यता के अनुसार भरत के नाम पर ही हमारे देश का नाम भारत पड़ा। 
 
आदिनाथ/ ऋषभनाथ सौ पुत्रों और ब्राह्मी तथा सुंदरी नामक दो पुत्रियों के पिता बने। भगवान ऋषभनाथ ने ही विवाह संस्था की शुरुआत की और प्रजा को पहले-पहले असि/ सैनिक कार्य, मसि/ लेखन कार्य, कृषि/ खेती, विद्या, शिल्प/ विविध वस्तुओं का निर्माण और वाणिज्य व्यापार के लिए प्रेरित किया। कहा जाता है कि इसके पूर्व तक प्रजा की सभी जरूरतों को कल्पवृक्ष पूरा करते थे। 
 
ऋषभनाथ ने हजारों वर्षों तक सुखपूर्वक राज्य किया और फिर राज्य को अपने पु‍त्रों में विभाजित करके दिगंबर तपस्वी बन गए। उनके साथ सैकड़ों लोगों ने भी उनका अनुसरण किया। जब कभी वे भिक्षा मांगने जाते, लोग उन्हें सोना, चांदी, हीरे, रत्न, आभूषण आदि देते थे, लेकिन भोजन कोई नहीं देता था। इस प्रकार, उनके बहुत से अनुयायी भूख बर्दाश्त न कर सके और उन्होंने अपने अलग समूह बनाने प्रारंभ कर दिए। यह जैन धर्म में अनेक संप्रदायों की शुरुआत थी।
 
जैन मान्यता है कि पूर्णता प्राप्त करने से पूर्व तक तीर्थंकर मौन रहते हैं। अत: आदिनाथ को एक वर्ष तक भूखे रहना पड़ा। इसके बाद वे अपने पौत्र श्रेयांश के राज्य हस्तिनापुर पहुंचे। श्रेयांस ने उन्हें इक्षु रस/ गन्ने का रस भेंट किया, जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया। वह दिन आज भी 'अक्षय तृतीया' के नाम से प्रसिद्ध है। हस्तिनापुर में आज भी जैन धर्मावलंबी इस दिन गन्ने का रस पीकर अपना उपवास तोड़ते हैं। 
 
इस प्रकार, एक हजार वर्ष तक कठोर तप करके ऋषभनाथ को कैवल्य ज्ञान/ भूत, भविष्य और वर्तमान का संपूर्ण ज्ञान प्राप्त हुआ। और वे जिनेन्द्र बन गए। पूर्णता प्राप्त करके उन्होंने अपना मौन व्रत तोड़ा और संपूर्ण आर्यखंड में लगभग 99 हजार वर्ष तक धर्म-विहार किया और लोगों को उनके कर्तव्य और जन्म-मृत्यु के बंधन से मुक्ति पाने के उपाय बताए।
 
अपनी आयु के 14 दिन शेष रहने पर भगवान ऋषभनाथ हिमालय पर्वत के कैलाश शिखर पर समाधिलीन हो गए। वहीं माघ कृष्ण चतुर्दशी के दिन उन्होंने निर्वाण/ मोक्ष प्राप्त किया। हिन्दू धर्मावलंबी ऋषभनाथ/ ऋषभदेव को भगवान विष्णु के अब तक हुए तेईसवें अवतारों में से आठवां अवतार मानते हैं। इस तरह अक्षय तृतीया के पावन दिन ही हस्तिनापुर में भगवान आदिनाथ ने प्रथम बार गन्ने का रस पीकर अपना व्रत तोड़ा था। अत: जैन धर्मावलंबियों में भी आखातीज का बहुत ही महत्व माना जाता है।
 
भगवान आदिनाथ का अर्घ्य
 
जल फलादि समस्त मिलायके, 
जजत हूं पद मंगल गायके।
भगत वत्सल दीनदयाल जी, 
करहु मोहि सुखी लखि। 
 
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