तिल हमारे देश की प्राचीन फसल है। विश्व में तिल के क्षेत्रफल की दृष्टि से भारत का स्थान प्रथम है, परंतु प्रति हैक्टेयर उत्पादन मे ं मेक्सिको, चीन, अफगानिस्तान हमसे आगे है। पौष्टिक एवं संतुलित आहार के हिसाब से हमारे ऋषियों ने इसे परंपराओं एवं धार्मि क कार्यकलापों में सम्मिलित करके समाज के सभी घटकों के साथ जोड़ दिया था।
मूँगफली के विविध मीठे एवं नमकीन व्यंजनों से हर गृहिणी भली-भाँति परिचित है।
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बंगाली में इसे चीनी बादाम कहा जाता है। यह पौष्टिक दृष्टि से बादाम से कम नहीं, क्योंकि आहार विज्ञान के विश्लेषण की दृष्टि से इसमें मांस से 1.3 गुना, अंडों से 2.5 गुना एवं फलों से लगभग 8 गुना प्रोटीन पाया जाता है। इसके दानों में थायोमिन, राइबोफ्लेविन, निकोटिनिक अम्ल एवं विटामिन 'ई' पर्याप्त मात्रा में पाए जाते हैं। यह लौह (आयरन), फॉस्फोरस एवं कैल्शियम का भी एक अच्छा स्रोत है।
इन दोनों ही फसलों की अधिक उपज के लिए इन्हें ऐसी मिट्टी में उगाएँ, जहाँ पानी न भरता हो किंतु नमी रहती हो, पर्याप्त वायु संचार हो, मिट्टी में चिकनापन और कंकड़ न हो, पर्याप्त मात्रा में जीवांश (ऑर्गेनिक कार्बन) उपलब्ध हों। इसकी मात्रा आधा प्रतिशत से अधिक हो। खेत की तैयारी सामान्य खरीफ फसलों के समान ही एक या दो बार हल या कल्टीवेटर, दो बार बखर या डिस्क हेरो और दो बार खेत के दोनों ओर से पाटा चलाकर की जाती है।
तिल की उन्नत किस्में : (1) जवाहर तिल-7 : इसे 'कंचन' नाम से जारी किया गया है। बीज सफेद, पकने की अवधि 80-85 दिन, तेल 54 प्रतिशत एवं उपज 8 क्विंटल/ हैक्टेयर। (2) जवाहर तिल-21 : बीज सफेद, पकने की अवधि 65-70 दिन, तेल 54 प्रतिशत, उपज 8 क्विंटल प्रति हैक्टेयर। (3) नं. 32 : पकने की अवधि 95-100 दिन, बीज सफेद, तेल 53 प्रतिशत, उपज 7 क्विंटल/ हैक्टेयर।
मूँगफली की उन्नत किस्में : जे-38, जेएल-24, एमए-10, एसबी-11, कादरी-3, एम-13 ज्योति, एके 12-24, गंगापुरी आदि हैं।
तिल के बीज की मात्रा 5 किग्रा प्रति हैक्टेयर लगती है। इसके बीज के
तिल के नाम से ही 'तिलहन' (यानी तेल देने वाली सभी फसलें) शब्द की उत्पति हुई है। पोषण की दृष्टि से तिल का तेल एक शक्तिवर्द्धक आहार है। इसकी प्रति 1 किलोग्राम मात्रा से लगभग 6 हजार कैलोरी ऊर्जा प्राप्त होती है
समान वितरण के लिए बीजों को गोबर की छनी हुई खाद या छनी हुई दानेदार मिट्टी के साथ मिलाकर बोया जाना चाहिए। मूँगफली के मोटे दाने वाली किस्मों के 100 किग्रा व छोटे दाने वाली के 80 किग्रा बीज प्रति हैक्टेयर की जरूरत होती है। दोनों ही फसलों के बीजों को 5 ग्राम 'प्रोटेक्ट' (ट्राइकोडर्मा विरिडि) नामक जैविक फफूँदनाशक से प्रति 1 किलोग्राम बीज के हिसाब से उपचारित करने के बाद बोएँ। इससे अंकुरण के समय रोगों के लगने की आशंका कम हो जाती है।
पौध पोषण : पौध पोषण के लिए तिल के लिए 5 से 6 टन व मूँगफली के लिए 8 से10 टन अच्छी पकी गोबर खाद प्रति हैक्टेयर बोने के कुछ समय पहले ही डालकर बखर चलाकर मिट्टी में अच्छी तरह मिलाएँ। इसी समय मूँगफली के लिए 200 किलोग्राम जिप्सम (गंधक) की पूर्ति के लिए मिलाएँ।
तिल के लिए 30 किग्रा नत्रजन, 15 किग्रा स्फुर व 10 किग्रा पोटाश प्रति हैक्टेयर बीज बोते समय बीज के नीचे कतारों में बोएँ। मूँगफली के लिए 20 किग्रा नत्रजन, 60 किग्रा स्फुर व 15 किग्रा पोटाश प्रति हैक्टेयर बीज बोते समय बीज के नीचे ओर कर (बोकर) दें। अलग-अलग मिट्टी, मौसम, किस्म व साल-संभाल तथा पोषण के अनुसार तिल से प्रति हैक्टेयर 6 से 9 क्विं. व मूँगफली से 20 से 30 क्विं. उपज मिल सकती है।
तिल से ही बना है 'तिलहन' शब्द : तिल के नाम से ही 'तिलहन' (यानी तेल देने वाली सभी फसलें) शब्द की उत्पति हुई है। पोषण की दृष्टि से तिल का तेल एक शक्तिवर्द्धक आहार है। इसकी प्रति 1 किलोग्राम मात्रा से लगभग 6 हजार कैलोरी ऊर्जा प्राप्त होती है। शीतकाल में इसका उपयोग करना भारत के सभी भागों में समान रूप से प्रचलित है। मकर संक्रांति यानी 14 जनवरी को इसके मीठे व नमकीन व्यंजन उत्तर भारत के लगभग सभी प्रांतों में बनाए जाते हैं।
इससे तैयार की जाने वाली गजक, रेवड़ी, तिल पट्टी, रसपिंडी आदि का एक व्यवस्थित व्यवसाय है जिससे हजारों लोगों को रोजगार मिलता है। तिल की विभिन्न किस्मों के बीजों में 45 से 53 प्रतिशत तक तेल पाया जाता है। तेल का उपयोग भोजन पकाने, सौंदर्य प्रसाधन बनाने आदि के लिए किया जाता है। देश के उत्पादन का लगभग 20 प्रश बीजों व शेष तेल निकालने के काम आता है।